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नियमसार-प्राभृतम् अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो मम्मत्तं हवेइ-आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानात् सम्यक्त्वं भवति । आप्तश्चागमश्च तत्त्वानि च आप्तागमतत्वानि तेषां श्रद्धानं रुचिः प्रतीतिविश्वासस्तस्मात् सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं भवति । एतद्व्यवहारसम्यक्त्वस्याख्यान तवाधारेण निश्चयनयात् निजशुद्धबुद्धपरमानन्दमयात्मनि रुचिः श्रद्धानं निश्चयसम्यक्त्वम् । इदं साध्यं व्यवहारं साधनं च, तत एवाचार्यः प्राग्व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपमुक्तम् ।
___ अथक आप्तो प्रमाणात मात्वं भवति, स एव तावदुच्यताम् ? ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा अत्तो हवे-व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा आप्तो भवेत्व्यपगता निर्गता अशेषाश्च ते दोषाः यस्मात् स व्यपगताशेषदोषः शारीरिफमानसिकागन्तुकनानाविधदुःखकारणजातिजरामरणादिनिखिलदोषविमुक्तो यः कश्चिदात्मा स एव आप्तः। पुनः कथम्भूतः? सकलगुणात्मा सकलाश्च ते गुणास्त एव आत्मा स्वभावो यस्यासौ एव आप्तो भवेत् देवोभवितुमर्हेत् ।
तद्यथा--आगमभाषया स्वपौरुषात घातिकर्माणि निहत्य यः कश्चित् कर्मभूभुभदिस्वात् वीतरागत्वं विश्वतत्त्वज्ञातृत्वात् सर्वज्ञत्वं मोक्षमार्गनेतृत्वात् हितानु
स्याद्वादचन्द्रिका टीका
आप्त, आगम और तत्त्व, इनका श्रद्धान करना, इनमें रुचि, प्रतीति और विश्वास रखना ही सम्यग्दर्शन है । यह व्यवहार सम्यक्त्व का कथन है । इसके आधार से निश्चयनय से अपनी शुद्ध-बुद्ध परमानंदमय परमात्मा में रुचिरूप श्रद्धान होना निश्चयसम्यक्त्व है। यह साध्य है और व्यवहारसम्यक्त्व साधन है। इसीलिये यहाँ आचार्यदेव ने पहले व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप कहा है।
शंका-आप्त कौन हैं ? जिनके श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, पहले उन्हीं का कथन कीजिये?
समाधान--सर्वदोषरहित और सर्वगुणों सहित आत्मा ही आप्त है । शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक रूप नाना प्रकार के दुःख हैं, उनके कारण ऐसे जन्म, जरा, मरण आदि संपूर्ण दोषों से विमुक्त जो कोई आत्मा है, वही आप्त है तथा जिनके संपूर्ण गुणस्वभाव प्रगट हो चुके हैं, वे ही आप्तदेव हो सकते हैं।
इसी का स्पष्टीकरण-आगमभाषा में जो कोई भी महापुरुष अपने पुरुन षार्थ के बल से घातिकमों को नष्ट कर कर्मपर्वतों का भेदन करके वीतरागता को,