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नियमसार प्राभृतम्
साक्षात् मोक्षप्राप्तिहेतुत्वात् । भावमोक्षापेक्षया अध्यात्मभाषया वा क्षीणकषायान्त्यसमयपरिणामोऽपि चेति ।
तात्पर्यमेतत् — चिच्चैतन्यचमत्कारस्वरूप निजपरमात्मतत्वस्य रुचिस्तस्यैव ज्ञानं तत्रैवावस्थानं चैतदभेद रत्नत्रय स्वरूपनिश्चयमोक्षमार्गमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयरूपव्यवहारमोक्षमार्ग आश्रयणीयः । सच्छक्त्यभावे देशचारित्रमवलम्वनीयं महाव्रतस्य च भावना कर्तव्या । स्तोकव्रतग्रहणाभावे सम्यक्त्वं वढीकुर्वता सवता विकलचारित्रस्य भावना विधातव्या । किं व क्रममनतिक्रम्येथ भावना भवनाशिनी भवति ।
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अघुमात्र ग्रन्ये देसि सिहं पि य पत्तेयपरूपणा होदि एतेषां त्रयाणामपि च प्रत्येक प्ररूपणा भवति । श्री कुन्दकुन्ददेवाः स्वयमेव अग्ने रत्नत्रस्य पृथक्-पृथक् निरूपणं करिष्यन्तीति ॥४॥
केलियों का अंतिमसमयवर्ती रत्नत्रय परिणाम हो मोक्षमार्ग है, क्योंकि वह साक्षात्अनंतर क्षण में मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है | अथवा भावमोक्ष की अपेक्षा से अध्यात्म भाषा में क्षीणकषायवतों मुनि का अन्तिम समयवर्ती परिणाम भी मोक्षमार्ग है |
तात्पर्य यह निकला कि चित् चेतन्य चमत्कारस्वरूप अपनी आत्मा ही परमात्मतत्त्व हैं, उसका श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में स्थिरतारूप चारित्र, यह अभेदरत्नत्रय का स्वरूप है । यही निश्चय - मोक्षमार्ग है। इसको उपादेय करके भेदरत्नत्रयस्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिये । यदि मुनि बनने की शक्ति नहीं है, तो अणुव्रती आदि बनकर देशचारित्र का अवलम्बन लेना चाहिये और महाव्रतों की भावना करनी चाहिये ।
यदि अणुव्रत भी नहीं ले चारित्र की भावना करनी चाहिये, गई भावना भव का नाश करने वाली होती है।
सके हैं, तो सम्यक्त्व को दृढ़ रखते हुए देशक्योंकि कम का उल्लंघन न करते हुए ही की
अब इस ग्रन्थ में इन तीनों की भी प्रत्येक की अलग-अलग प्ररूपणा करते हैं । अर्थात् श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं ही आगे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का पृथक्-पृथक् वर्णन करेंगे ।