Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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| उद्भट विद्वान होने के साथ जैन परम्परा से परिचित थे। आप पूज्य श्री जवाहर लाल जी म, पूज्य श्री गणेशीलालजी म. एवं मुनि श्री घासीलालजी महाराज के पास वर्षों तक अध्यापन सेवा कर चुके थे । सेठ मोतीलालजी इन्हें अपने | साथ इस विचार से लाए थे कि यदि पूज्य श्री की आज्ञा हुई तो नवदीक्षित मुनियों के अध्ययन हेतु इन्हें नियुक्त कर देंगे। पूज्य श्री को सुश्रावक मुथाजी ने अपनी भावना से अवगत कराया तो आचार्य श्री ने पण्डित जी से कल्याण | मंदिर के एक श्लोक का अर्थ कराया एवं आवश्यक पूछताछ के पश्चात् पण्डित जी की योग्यता एवं शील स्वभाव | को देखकर साधुभाषा में अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।
पण्डित झा साहब से संस्कृतभाषा आदि का अध्ययन प्रारम्भ हुआ । नवदीक्षित मुनि हस्ती को बहुत अच्छा | लगा। पण्डित झा भी उनकी प्रतिभा, स्मरणशक्ति एवं व्युत्पन्न मतित्व से अत्यन्त प्रभावित हुए। पं. दुःखमोचन झा जो भी पाठ पढ़ाते, उसे वे दूसरे दिन पूरा याद करके सुना देते । अध्ययन का क्रम निरन्तर बढ़ता गया। संस्कृत भाषा | आदि का अध्ययन करते हुए प्रथम चातुर्मास (विक्रम संवत् १९७८) अजमेर में सानंद व्यतीत हुआ ।
अजमेर में आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा, स्वामी जी श्री हरखचन्द जी म.सा, श्री लालचन्द जी म.सा. एवं नवदीक्षित श्री चौथमल जी म.सा. के साथ मुनि श्री हस्तिमल्ल जी महाराज सा. का प्रथम चातुर्मास यतनापूर्वक साध्वाचरण की कसौटी पर खरा उतरा ।
इसी चातुर्मास में आपने 'पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि' (पुरुष ! तुम ही तुम्हारे मित्र | हो, बाह्य मित्र की इच्छा करना व्यर्थ है । आचारांग १.३.९), अन्नो जीवों, अन्नं सरीरं ( जीव भिन्न है, शरीर भिन्न है । । - सूत्रकृताङ्ग २.१.३) अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चेव संवरइ (आत्मा स्वयं अपने द्वारा कर्मों की उदीरणा करता है, स्वयं ही उनकी गर्हा आलोचना करता है तथा स्वयं ही उनका संवर करता है । - भगवती
सूत्र १.३) जैसे आगम - वाक्यों का भी अध्ययन कर अपने जीवन को आध्यात्मिक दिशा प्रदान कर दी थी ।
अजमेरवासियों की उमंग एवं धर्माराधन की लगन के साथ चातुर्मास सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ ।
• प्रथम पद - विहार : मेड़ता की ओर
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वर्षाकाल की समाप्ति हुई। मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा के दिन पूज्य गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री शोभाचन्द्र जी म. सा. और सन्तमंडल के साथ ढड्डा जी के बाग से विहार कर पुष्कर, थांवला, पादु, मेवड़ा रीयां, आलणियावास, पांचरोलिया आदि क्षेत्रों में धर्मलाभ देते हुए चरितनायक मेड़ता पधारे। यह अनेक नये अनुभवों से ओत-प्रोत मुनि हस्ती की प्रथम पदयात्रा थी। नन्हें-कोमल कदमों की आहट और पाद- निक्षेप धरा के किसी जीव को त्रस्त न कर दे, इस विवेक से युक्त मुनि हस्ती 'दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं' का अभ्यास अपनी प्रथम पदयात्रा में कर रहे थे। प्रकृति के | परिवेश का पर्यालोचन करते हुए मुनि हस्ती पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय में जीवत्व के सत्य का साक्षात्कार कर रहे थे। सूक्ष्मातिसूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव के पिण्ड से छेड़छाड़ भी हिंसा है, ऐसे चिन्तन को संजोए प्राणिमात्र के प्रति अभय की भावना के मूर्तरूप बने वे जन-जन के दुलारे बन गए। इस विहार ने क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषह सहने के सामर्थ्य का वर्धन किया। बाल मुनि के स्वाभाविक भोलेपन और | कठोरचर्या के संगम को देख श्रावक समुदाय विस्मित था । श्रीमालों के उपाश्रय में श्रद्धालुओं की उमड़ती भीड़ | भक्तिमती मीरां की पावन मातृभूमि पर निरन्तर प्रवचनामृत बरसाने हेतु आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. से विनति | करने लगी। आठ दिवस तक आचार्य श्री एवं सन्तों की अमृतवाणी का रसास्वादन मेड़ता निवासियों तथा प्रवासियों