Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
३९७ छटपटाहट थी, वह शान्त होती है; परन्तु नित नयी बढ़ती लालसा को धन नहीं मिटाता । • धर्म भोग में प्रीति घटाता और नवीन आकांक्षाएँ बन्द करता है। जब आकांक्षा का रोग ही नहीं होगा तो पूर्ति के ||
लिये धन की आवश्यकता भी कम हो जायेगी। • धन रोग को नहीं मिटाता, वह रोग के लिए दवा दिला सकता है। धर्म रोग के मूल को नष्ट करता और उदित
रोग को सहने की क्षमता प्रदान करता है, जिससे मानव अभाव में भी मानसिक शान्ति बनाये रख सकता है। • धन वर्गभेद कर मनुष्य को मनुष्य से टकराता है, वहां धर्म प्राणिमात्र में बंधुभाव जगाकर परस्पर मैत्री और
निर्वैरभाव का संचार करता है। • धन मन में चंचलता, भय, शोक के भाव उत्पन्न कर नई उपलब्धि के लिए प्रेरित करता और प्राप्त की रक्षा के !
लिये चिन्तित रखता है। • परिग्रह अधिकारवाद है। पशु वनों में मुक्त मन से परस्पर मिलकर खाते-पीते हैं, अधिकार नहीं रखते, वैसे ही। मानव बिना अधिकार-ममता के रहे तो कोई दुःख नहीं। महावीर ने मानव ही नहीं, प्राणिमात्र के साथ मैत्रीभाव की घोषणा की। महावीर का उपदेश सब जीवों को आत्मवत् देखना है। इसी को सम्यग् ज्ञान कहा है। आज महावीर के भक्तों को संसार की स्थिति देखते हुए सादा जीवन और आवश्यकता पर नियमन को अपनाना चाहिये। संयम उभयलोक हितकारी है। धर्म
• धर्म हृदय की बाड़ी में उत्पन्न होता है। वह किसी खेत में पैदा नहीं होता, न किसी हाट दुकान पर ही मिलता है। राजा हो या रंक, जिसके मन में विवेक है, सरलता है, जड़ चेतन का भेद ज्ञान है, वहीं वास्तव में धर्म का
अस्तित्व है। • सत्य से धर्म की उत्पत्ति होती है। चोर, लम्पट और हत्यारा भी सत्यवादी हो तो सुधर सकता है। यदि सत्य नहीं
तो अच्छे से अच्छा सदाचारी और साहूकार भी गिर जाता है, बिगड़ जाता है। धर्मरूप कल्पवृक्ष की वृद्धि दयादान से होती है। इसीलिये कहा है- “दयादानेन वर्धते।” बढ़ा हुआ धर्मवृक्ष क्षमा के बिना स्थिर नहीं रह सकता, इसलिये कहा है “क्षमया च स्थाप्यते धर्मः।” सहिष्णुता-क्षमा से धर्म की रक्षा होती है, कामादि विकार सहिष्णु-साधक को पराभूत नहीं कर सकते। धर्म का नाश किससे होता है, इसके उत्तर में आचार्य ने कहा - "क्रोधलोभाद् विनश्यति” क्रोध और लोभ से धर्म का नाश होता है जहाँ प्रशान्त भाव के बदले क्रोध का प्रभुत्व है वहाँ ज्ञानादि सद्गुण सुरक्षित नहीं रहते, आत्मगुण नष्ट हो जाते हैं। लोभ भी सब सद्गुणों का घातक है। इसलिये इन दोनों को धर्म नाशक कहा गया है। . आत्मिक गुणों को प्रकट करने की एवं राग, द्वेष और मोहादि घटाने की भावना जागृत करने की कसौटी पर जो | सर्वथा सही उतरे, उसे ही सर्वश्रेष्ठ धर्म मानना चाहिए। जो मत विश्वमैत्री , अहिंसा, संयम, तप आदि उत्कृष्ट भावों को जागृत कराने वाला हो, जिसके सिद्धान्त में किसी का पीड़न और तिरस्कार न हो, जो मनुष्य जाति में भेद की दीवारें न खींचता हो, जो विश्व के जीवों में आत्मवत् |