Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
View full book text
________________
नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ७०४
हे आचार्यप्रवर ! मुझे नरक, निगोद, तिर्यञ्च, मानव, देव, असुर आदि चौरासी लाख जीव योनियों में अनन्त काल | तक भटकने के पश्चात् पूर्व जन्मों में उपार्जित अतीव शुभ पुण्यों के फलस्वरूप आपके चरणारविन्दों की पवित्र रज !! की सेवा प्राप्त हुई है।
pari.
meroeswwwanim-
रत्नत्रयं दुरित- दुर्गक्षयैकवज्रं, प्राप्तोऽस्मि पूज्य ! तव भूरिदयाप्रसादात् । मिथ्यात्व-मोह-ममता-मद - लुम्पका: मां,
किं हा तथापि न हि देव ! परित्यजन्ति । हे पूज्यवर ! आपकी असीम दया के प्रसाद से, मुझे पापों के गढ़ को नष्ट करने में पूर्णत: सक्षम, वज्रतुल्य रत्नत्रय प्राप्त हुआ है। तथापि हे आराध्यदेव ! यह दुःख की बात है कि ये मिथ्यात्व, मोह, ममत्व और मद रूपी लुटेरे मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ रहे हैं?
e
लब्धोऽसि हे कुशलवंश- धुराधुरीण! संसार - तारणविधौ पटुकर्णधारः। चित्तं कषाय - निखिलार्ति-हरौषधं त्वां,
कल्पद्रुमाभमपि प्राप्तसुपीडितोऽस्मि ॥ हे कुशल-वंश-श्रमण-परम्परा के कुशल धुराग्रणी नायक ! भव्यों को संसार- सागर से पार लगाने वाले आप जैसे समर्थ कर्णधार मुझे मिल गये हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि विषय-कषायों तथा सब प्रकार के दुःख-द्वन्द्व को नष्ट कर देने में समर्थ दिव्य औषधि तुल्य एवं सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष के समान आपको पाकर भी मैं (भव-रोग से) पीड़ित हूँ।
(७)
नाम्नापि ते गुरु गजेन्द्र ! लयं व्रजन्ति, विघ्नोपसर्ग • दुरितौघभव - प्रपञ्चाः। साक्षात् शिवौध ! तव दर्शन - वन्दनेन,
कर्मारयो यदि लयन्ति किमत्र चित्रम्॥ हे गुरुदेव गजेन्द्राचार्य ! आपका नाम लेते ही सभी प्रकार के विघ्न, उपसर्ग, पापपुंज और संसार के प्रपञ्च | तिरोहित हो जाते हैं, तो हे मूर्तिमान् कल्याणकुंज ! आपके दर्शन और वन्दन से यदि कर्मशत्रु नष्ट होते हैं, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
(८)
प्रातर्जपामि मनसा तव नाममन्त्रं मध्येऽह्नि ते स्मरणमस्तु सदा गजेन्द्र ।