Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड
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(१७)
देह से शिक्षा (तर्ज- शिक्षा दे रही जी हमको रामायण अति प्यारी) शिक्षा दे रहा जी हमको, देह पिंड सुखदाई ॥टेर ॥ दश इन्द्रिय अरु बीसों अंग में, देखो एक सगाई । सबमें एक, एक में सबकी, शक्ति रही समाई ॥१॥शिक्षा ॥
आँख चूक से लगता कांटा, पैरों में दुखदाई । फिर भी पैर आँख से चाहता, देवे मार्ग बताई ॥२॥शिक्षा ॥ सबके पोषण हित करता है, संग्रह पेट सदाई । रस कस ले सबको पहुँचाता, पाता मान बड़ाई ॥३॥शिक्षा ॥ दिल सबके सुख-दुःख में धड़के, मस्तक कहे भलाई । इसी हेतु सब तन में इनकी, बनी आज प्रभुताई ॥४॥शिक्षा । अपना काम करें सब निश्छल, परिहर स्वार्थ मिताई । कुशल देह के लक्षण से ही, स्वस्थ समाजरचाई ॥५॥शिक्षा ॥ विभिन्न व्यक्ति अंग समझलो, तन समाज सुखदाई । 'गजमुनि' सबके हित सब दौड़े, दुःख दरिद्र नश जाई ॥६॥शिक्षा ॥
(१८) सुख का मार्ग : विनय
___ (तर्ज-रिषभजी मुंडे बोल) सदा सुख पावेला २ जो अहंकार तज, विनय बढ़ावेला ॥सदा ॥
अहंकार में अकड़ा जो जन, अपने को नहीं मानेला । ज्ञान-ध्यान-शिक्षा- सेवा, को लाभ न पावेला ॥१॥ विनयशील नित हंसते रहता, रूठे मित्र मनावेला ॥ निज-पर के मन को हर्षित कर, प्रीत बढ़ावेला ॥२॥ विनय-प्रेम से नरपुर में भी, सुरपुर - सा रंग लावेला । उदासीन मुख की सूरत नहीं, नजर निहारेला ॥३॥ विनय धर्म का मूल कहा है, इज्जत खूब मिलावेला । योग्य समझ स्वामी, गुरु पालक मान दिलावेला ॥४॥ पुत्र-पिता से कुंजी पावे, शिष्य गुरु मन भावेला ।
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