Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh

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Page 874
________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ८०४ का मार्ग प्रशस्त कर देता है। आपके भी वैराग्यसंस्कार विकसित हुए । वि.सं. १९५७ में महासती जी श्री सिद्धू जी ने | जोधपुर में संथारा ग्रहण किया। महासती जी के दीर्घकालीन संथारे के समय दर्शनार्थ भोपालगढ़ के भाई-बहिनों के साथ आप भी जोधपुर गए। वहीं आपको पंडित मुनि श्री चन्दनमलजी म.सा. के दर्शन व उपदेश श्रवण का सुअवसर मिला। सेठानी जी श्रीमती सोनी बाई जी की अनुमति से आप पंडितमुनि श्री के सान्निध्य में रहे, जहाँ आपने साक्षरता व प्रारंभिक धार्मिक ज्ञान प्राप्त किया। पंडित मुनि श्री की सेवा में शिक्षा व संस्कार पाकर आपका वैराग्य | दृढ़ से दृढतर बनता गया । मात्र १४ वर्ष की वय में वि.सं. १९५८ आषाढ कृष्णा पंचमी को सेठों की रींया में आपने स्वामीजी श्री चन्दनमल जी म.सा. का शिष्यत्व स्वीकार कर भागवती श्रमण दीक्षा अंगीकार कर ली। दीक्षा लेकर आपने संयम-साधना के साथ गुरु भगवंतों व शासन की सेवा को अपना लक्ष्य बना लिया । आप उन विरल साधकों में से एक हैं जिन्होंने तीन-तीन आचार्यों (आचार्य श्री विनयचंदजी महाराज, आचार्य श्री | शोभाचंद जी महाराज एवं चरितनायक आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज) की सेवा की। ३७ वर्ष का आपका संयम पर्याय सेवा का पर्याय समझा जा सकता है । लघुवय आचार्य श्री हस्तीमलजी | महाराज जब स्थंडिल पधारते तो आप सम्मानार्थ साथ पधारते व आग्रहपूर्वक स्थंडिल की पातरी भी हाथ में लेने में | संकोच नहीं करते । अध्ययनरत लघुवय आचार्य श्री जब कमरे में अध्ययन करते तो आप मानो प्रहरी बन बाहर | विराजते व भक्त समुदाय को बाहर से ही मौन दर्शन करने का संकेत करते। आप भिक्षाचरी के विशेषज्ञ संत थे । किनके लिए क्या आवश्यक व उपयोगी है, इसका सदा सतर्कता से ध्यान रखते । लघुवय आचार्य श्री व अन्य | अध्ययनरत संतों के लिये बौद्धिक रूप से क्या उपयोगी, साथ ही विकार भाव जागृत ही न हो, ऐसे हित मित |पथ्यकारी आहार की गवेषणा करने का सदा खयाल रखते । वस्तुतः एक कुंभकार जैसे मिट्टी के बर्तनों को घड़ने में | अंदर हाथ रख कर चोट करता है, माता जैसे स्नेह, ममत्व व हित भाव से शिशु को बड़ा करती है कुछ वैसा ही योगदान आचार्य हस्ती के जीवन-निर्माण में आपका रहा । आपको अगर आचार्य हस्ती की धाय मां की उपमा दे दी जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । इन्द्रियों पर आपका बड़ा नियन्त्रण था। गिनती की कुछ चीजों के सिवाय लगभग सभी मिष्ठान्नों के त्यागी थे । जो अच्छी से अच्छी वस्तु भिक्षा में मिलती, उसे वे साथी सन्तों को दे देते। आपने समस्त हरी सब्जी का भी त्याग कर दिया था। महीने में पांच दिन सिवाय आपको चार विगय का त्याग था । आचार्य श्री के दक्षिण प्रवास की ओर विहार में भी आप उनके साथ थे । रतलाम में वि.सं. १९९४ फाल्गुन शुक्ला एकादशी को आपने संलेखना संथारा स्वीकार कर द्वादशी को प्रातः ५ बजे ब्रह्मवेला में अपना अन्तिम | मनोरथ पूर्ण कर महाप्रयाण कर दिया। बहुत कम ऐसे महापुरुष होते हैं जो दूसरों के निर्माण में अपने अस्तित्व को भी समर्पित कर देते हैं। ऐसे ही महापुरुष थे स्वामी जी भोजराजजी महाराज । • पं. रत्न श्री बड़े लक्ष्मीचन्दजी म.सा. रत्नसंघ रूपी हार की बहुमूल्य मणि, मर्मज्ञ शास्त्रवेत्ता, आगम रसिक, शोधप्रिय इतिहासज्ञ एवं विशुद्ध श्रमणाचार के पालक और प्रबल समर्थक थे पं. रत्न श्री बड़े लक्ष्मीचन्दजी म.सा. । संवत् १९६५ में मारवाड़ | हरसोलाव ग्राम में श्री बच्छराजजी बागमार की धर्मपत्नी श्रीमती हीराबाई की कुक्षि से जन्मे लूणकरण जी अल्पायु में | पिताश्री का वियोग होने पर विक्रम संवत् १९७९ मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा को १४ वर्ष की वय में मुथाजी के मंदिर, ( जोधपुर में पूज्य आचार्यप्रवर श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. के सान्निध्य में भागवती दीक्षा अंगीकार कर 'मुनि लक्ष्मीचन्दजी'

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