Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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| १९९४ मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी को महामंदिर-जोधपुर में महासती श्री हुलासकँवरजी म.सा. की निश्रा में भागवती दीक्षा अंगीकार की
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३५ वर्षों तक संयम का पालन कर आपने वि.सं. २०२९ श्रावण शुक्ला द्वितीया को घोड़ों का चौक जोधपुर में समाधिमरण को प्राप्त किया।
साध्वी प्रमुख प्रवर्तिनी श्री लाडकंवर जी म.सा.
साध्वीप्रमुखा महासती श्री लाडकंवर जी म.सा. का जन्म पुण्यधरा पीपाड़ शहर में धर्मप्रेमी सुश्रावक श्रीमान् | फतेहराजजी मुणोत की धर्मसहायिका सहधर्मिणी श्रीमती बदनबाईजी की कुक्षि से हुआ। बचपन से ही माता-पिता | एवं संतसती - समागम से आपकी धर्माभिरुचि व धर्म संस्कार पुष्ट होते रहे ।
योग्यवय होने पर आपका श्री जुगराज जी भण्डारी, महामन्दिर (जोधपुर) के साथ परिणय हुआ । अल्पकालिक | वैवाहिक जीवन के उपरान्त ही पतिदेव श्री जुगराजजी भण्डारी का असामयिक निधन हो गया । यौवन की दहलीज | पर खड़ी लाडकँवर को संसार के सच्चे स्वरूप, सांसारिक सुखों की असारता व क्षण भंगुरता का बोध हुआ और | बाल्यकाल से प्राप्त धर्माभिरुचि वैराग्य भाव में परिणत हो गई । १६ वर्ष की लघुवय में परमपूज्य आचार्य हस्ती की | अनुज्ञा से वि.सं. १९९५ माघ शुक्ला त्रयोदशी को श्रमणी जीवन अंगीकार कर आप महासती श्री अमरकंवर जी म.सा. की शिष्या बनी ।
श्रमणी दीक्षा अंगीकार कर आपने गुरुणी मैय्या के चरणों में रहकर धार्मिक ज्ञान से अपने संयम जीवन को | समृद्ध किया । सेवाभाव, सरलता, निस्पृहता, दृढ़ आचार निष्ठा, उच्च समर्पण भाव की बेमिसाल प्रतिमा महासती जी म.सा. ने दीक्षा लेने के साथ ही शिष्या नहीं बनाने व नवीन वस्त्र न पहिनने का नियम लेकर निस्पृहता व त्यागवृत्ति का अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया । सेवा व वैय्यावृत्य की धनी महासती श्री लाडकंवर जी म.सा. ने महासती श्री स्वरूप कुंवर जी म. सा, महासती श्री धनकँवर जी म.सा. महासती श्री किशन कंवर जी म.सा. (खींवसर वाले), महासती श्री ज्ञानकंवर जी म.सा. महासती श्री वृद्धिकंवर जी म.सा, प्रवर्तिनी महासती श्री बदनकंवर जी म.सा. प्रभृति | महासतीवृन्द की पूर्ण निष्ठा, कुशलता व अग्लान भाव से सेवा कर अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया ।
आपके ६४ वर्षीय संयम-जीवन में ३६ वर्षावासों का लाभ जोधपुर को मिला। इसके पीछे भी आपकी सेवा भावना व वैय्यावृत्य की कुशलता ही प्रमुख कारण थे । सुदीर्घ काल तक एक ही स्थान पर विराजने पर भी आप व्यक्तिगत मोह-ममत्व से सदा दूर रहे। श्रावक-श्राविकाओं को कभी भी कोई उपालम्भ न देकर सदा स्वयं अपनी | धर्म-साधना व आत्म-चिन्तन में ही लीन रहना व आगन्तुकों की धर्मप्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना आपके जीवन की विशेषता थी । स्वयं प्रवचन प्रवीण होते हुए भी छोटी सतियों को आगे बढाने हेतु उन्हें प्रवचन के लिए आप | प्रोत्साहित व प्रेरित करते रहते थे। आपने अपनी गुरु भगिनियों की तो सेवा की ही, अनेक सतियों को संयमनिष्ठा व दृढ़ आचार पालन की दृष्टि से उन्हें घड़ने का भी महनीय कार्य कर शासन की प्रभावना की । सेवाकार्य में आपने अपने स्वास्थ्य की भी कभी परवाह नहीं की ।
पूज्यपाद आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. ने वि.सं. २०४६ मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी ९ दिसम्बर, १९८९ को आपको उपप्रवर्तिनी पद से विभूषित किया। पूज्या प्रवर्तिनी महासती श्री बदन कंवर जी म.सा. के स्वर्गारोहण के पश्चात् वि.सं. २०५१ आश्विन शुक्ला दशमी १४ अक्टूबर, १९९४ को आचार्य प्रवर श्री हीराचन्द जी म.सा. द्वारा