Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh

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Page 875
________________ anvaareenaTrewwmaran-BorwWEARI पंचम खण्ड : परिशिष्ट बन गए। आपको प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषाओं का विशेष ज्ञान था। आप सत्य बात कहने में स्पष्ट रहते थे। भीतर और बाहर से आप एक थे। सरल एवं भद्रिक प्रकृति के सन्त थे । लम्बे कद एवं सुडौल देह के धनी पण्डितरत्न श्री बड़े लक्ष्मीचन्दजी म.सा. ने लगभग ५६ वर्षों की सुदीर्घ अवधि तक अनन्य निष्ठा के साथ श्रमण धर्म का पालन करते हुए अनेक हस्तलिखित एवं प्राचीन ग्रन्थों का अनुशीलन कर स्थानकवासी परम्परा के विशिष्ट कवियों, तपस्वियों, साध्वियों आदि के जीवन और कृतित्व पर प्रकाश डाला। श्री रतनचन्द्र पद मुक्तावली, सुजानपद सुमन वाटिका, तपस्वी मुनि बालचन्द्रजी , सन्त-जीवन की झांकी आदि अनेक कृतियां आपके परिश्रम से प्रकाश में आ सकीं। परम्परा के सन्त-सतियों का जीवन चरित्र, जो सहज उपलब्ध नहीं था, उसे श्रमपूर्वक खोजकर आपने समाज के सामने रखा। 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' के लेखन में भी आपका सहयोग सराहनीय रहा। सन्त-सतियों के विद्याभ्यास में आपकी गहन रुचि थी और समय-समय पर आप उनको पढ़ाया भी करते थे। आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. के सतीर्थ्य होते हुए भी आपने जिस निष्ठा एवं समर्पण से उनकी आज्ञा में अपना सर्वस्व अर्पित किया, वह साधकों के लिए प्रेरणापुंज के रूप में स्मरणीय रहेगा। आप एक प्रकार से आचार्यदेव के दक्षिण हस्त थे। लगभग २ वर्ष जोधपुर में स्थिरवास विराजित रहने पर आपके सुशिष्य श्री मानचन्द्र जी म.सा. (वर्तमान उपाध्याय प्रवर) ने आपकी तन, मन से सेवा कर अनूठा आदर्श उपस्थित किया। काल धर्म को प्राप्त होने के १० दिन पूर्व पाट से गिर जाने के कारण आपकी गर्दन की हड्डी टूट गई थी, जिसके अनन्तर आपने देह की विनश्वरता को जानकर आचार्यप्रवर की स्वीकृति मिलने पर आलोचना प्रायश्चित्तपूर्वक चित्त को समाधि में लगा लिया और पौष शुक्ला १० संवत् २०३५ दिनांक ७ जनवरी १९७९ को प्रात: ५.३० बजे आप जोधपुर में देवलोक गमन कर गए। व्याख्यान स्थगित रखकर आचार्यप्रवर एवं सन्त-मण्डल ने इन्दौर में आपको श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। • महासाधिका महासती श्री बड़े धनकवर जी म.सा. जिनशासन उन्नयन में संत भगवंतों के साथ ही महासतीवृन्द का महिमाशाली योगदान रहा है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि याकिनी महत्तरा ने हरिभद्रसूरि को प्रेरित कर जिन-धर्मानुयायी ही नहीं, मोक्ष-मार्गानुयायी बनाया जो आगे चलकर जिनशासन के युगप्रधान प्रभावक आचार्य बने। अनेकों महासतियों के उपकार के प्रसंग जैन इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित हैं। रत्नवंश परम्परा को भी समय-समय पर संयम की उत्कट आराधिका महासतियों ने अपनी जीवन-ज्योति, संयम-साधना व ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना से समृद्ध किया है। ऐसी ही एक महासाधिका का नाम है महासतीश्री बड़े धनकंवर जी म.सा.। महासतीश्री बड़े धनकंवर जी म.सा. में ज्ञान-क्रिया का मणिकांचन संयोग था। महाव्रतों के निरतिचार पालन व संयम के प्रति आप सजग रहते । संयम-जीवन में सहज समझे जाने वाले दोष भी न लग पायें, इस ओर आप | सदा सचेष्ट रहते। क्रिया के साथ-साथ ही महासतीजी सदा ज्ञान-साधना में रत रहते । स्वयं ज्ञान-ध्यान में रत रहना व दूसरों को प्रेरित करना, उन्हें ज्ञानदान देना, आपके जीवन का लक्ष्य था। रूपकंवर बाई व उनके एकाकी पुत्र हस्ती के हृदय में वैराग्य बीज का पोषण कर उन्हें संयम-ग्रहण हेतु प्रेरित करने का प्राथमिक श्रेय आपको ही है। बालक हस्ती व उनकी मां को संयम की ओर प्रेरित कर आपने जिनशासन एवं रत्नसंघ की महती सेवा की। महासती जी श्री Hom

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