Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
View full book text
________________
चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड
(४९)
संघ की शुभ कामना (तर्ज : लाखों पापी तिर गये)
श्री संघ में आनन्द हो, कहते वन्दे विरम् ॥ ॥ मिथ्यात्व निशिचर का दमन, कहते ही वन्दे जिनवरम्, सम्यक्त्व के दिन का उदय, कहते - दिल खोल अरु मल दूर कर, अभिमान पहले गाल दो, कल्याण हो सच्चे हृदय, कहते ॥२॥
॥१ ॥
॥३ ॥
दानी दमी ज्ञानी बनें, धर्माभिमानी हम सभी, बिन भेद प्रेमी धर्म के, कहते सत्य, समता, शील अरु संतोष मानस चित्त हो, त्यागानुरत मम चित्त हो, कहते. ॥४ ॥
शुभ धर्म सेवी से नहीं, परहेज अणुभर भी हमें, सर्वस्व देवें संघ हित, कहते ॥५ ॥ यही, सहधर्मी वत्सलता करें,
जिनवर हमें वर दो अनभिज्ञ को 'करी' बोध दें, कहलावे वन्दे जिनवरम् ॥६॥ (श्री संघ में आनन्द हो, कहते ही वन्दे जिनवरम् ॥)
(५०)
पर्युषण - महिमा
(तर्ज- झण्डा ऊँचा रहे हमारा)
पर्युषण है पर्व हमारा, देह मुक्ति का है यह द्वारा ॥टेर ॥ अनंतजीव का मुक्ति-विधाता, शान्ति सुधा सब जग बरसाता । आत्म शुद्धि का पाठ पढ़ाता, तभी बना जग का यह प्यारा ॥१ ॥ सुरपति इसमें पुण्य कमाते, मृत्युलोक भी पर्व मनाते । मुनिजन के मनसुन हर्षाते, संयमियों का परम आधारा ॥२॥ पाप ताप संताप मिटाता, मुद मंगल सन्मति का दाता । जीवमात्र के हो तुम भ्राता, निर्मल कर दो चित्त हमारा ॥३ ॥ युग-युग में जो इसे मनावें, राग-द्वेष को दूर भगावें । दिव्य भाव की संपद पावें, आनन्द भोगेगा अब सारा ॥४ ॥
७९१