Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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| चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड
७९५
प्रात: उठ मंगलमय प्रभु का, निर्मल ध्यान लगाओ । भवभव के उपकारी सद्गुरु, उनको सीस नमाओ ॥१॥ कनक कामिनी के जो त्यागी, इन्द्रिय विषय विरागी । कर्म बंध छेदन के हेतु, उनकी सेवा बजाओ ॥२॥ गुरु मुख देखे दु:ख टाले सब, होवे मंगलाचार ।। सुर तरु सम सेवो नितभविजन, सुख शांति दातार ॥३॥ उपकारी सद्गुरु सम दूजा, नहीं कोई संसार । मोह भंवर में पड़े हुए को, यही बड़ा आधार ॥४॥ क्रोध लोभ से दूर हटाकर, देते हमें बचाय । इसीलिए कहता है ‘गजमुनि', गुरु शरणा लो जाय ॥५॥
सच्ची सीख
(तर्ज - जावो जावो ऐ मेरे साधु....) गाओ गाओ अय प्यारे गायक, जिनवर के गुण गाओ ॥टेर ॥ मनुज जन्म पाकर नहीं कर से, दिया पात्र में दान । मौज शौक अरु प्रभुता खातिर, लाखों दिया बिगाड़ ॥१॥ बिना दान के निष्फल कर हैं, शास्त्र श्रवण बिन कान। व्यर्थ नेत्र मुनि दर्शन के बिन, तके पराया गात ॥२॥ धर्म स्थान में पहुँचि सके ना, व्यर्थ मिले वे पांव। इनके सकल करण जग में, है सत्संगति का दांव ॥३॥ खाकर सरस पदार्थ बिगाड़े, बोल बिगाड़े बात । वृथा मिली वह रसना, जिसने गाई न जिन गुण गात ॥४॥ सिर का भूषण गुरु वन्दन है, धन का भूषण दान । क्षमा वीर का भूषण, सबका भूषण है आचार ॥५॥ काम मोह अरु पुद्गल के हैं, गायें गान हजार । 'गजमुनि' आत्म रूप को गाओ, हो जावे भव पार ॥६॥