Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड
७७७
(३०)
गुरु-महिमा
(तर्ज- कुंथु जिनराज तूं ऐसा) अगर संसार में तारक, गुरुवर हो तो ऐसे हों ॥टेर ॥ क्रोध ओ लोभ के त्यागी, विषय रस के न जो रागी । सूरत निज धर्म से लागी, मुनीश्वर हों तो ऐसे हों ॥१॥अगर ॥ न धरते जगत से नाता, सदा शुभ ध्यान मन भाता । वचन अघ मेल के हरता, सुज्ञानी हों तो ऐसेहों ॥२॥अगर ॥ क्षमा रस में जो सरसाये, सरल भावों से शोभाये । प्रपंचों से विलग स्वामिन्, पूज्यवर हों तो ऐसे हों ॥३॥अगर ॥ विनयचन्द पूज्य की सेवा चकित हो देखकर देवा । गुरु भाई की सेवा के, करैय्या हों तो ऐसे हों ॥४॥अगर ॥ विनय और भक्ति से शक्ति, मिलाई ज्ञान की तुमने । बने आचार्य जनता के, गुण सुभागी हों तो ऐसे हों ॥५॥अगर ॥
(३१)
गुरु-विनय (तर्ज-धन धर्मनाथ धर्मावतार सुन मेरी) श्री गुरुदेव महाराज हमें यह वर दो२ । रग-रग में मेरे एक शान्ति रस भर दो ॥टेर ॥ मैं हूँ अनाथ भव दुःख से पूरा दुखियार । प्रभु करुणा सागर तूं तारक का मुखिया । कर महर नजर अब दीन नाथ तव कर दो२ ॥१॥रग॥ ये काम - क्रोध- मद-मोह शत्रु हैं घेरेर, लूटत ज्ञानादिक संपद को मुझ डेरे । अब तुम बिन पालक कौन हमें बल दो२ ॥२॥रग॥ मैं करूं विजय इन पर आतम बल पाकर,२ जग को बतला दूं धर्म सत्य हर्षाकर । हर घर सुनीति विस्तार करूँ वह जर दो२ ॥३॥रग ॥ देखी है अद्भुत शक्ति तुम्हारी जग में२