Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं सहारा नहीं लेंगे तो क्या जीवन का निर्माण कर पाएंगे? गहराई से विचारने पर यह अच्छी तरह मालूम होगा कि स्वाध्याय के सिवाय कोई अन्य सहारा नहीं है, जिससे जीवन को ऊंचा उठाया जा सके। क्या गृहस्थ और क्या साध, स्वाध्याय सबके लिए आवश्यक है।”
आचार्य श्री ने फरमाया है कि जैन धर्म को पाकर भी यदि रागद्वेष को शान्त नहीं कर सके तो कहाँ और कौनसी योनि में करोगे? एक प्रवचन 'कला और ज्ञान' में आचार्य श्री फरमाते हैं - “खेद है कि आजकल हमारे भाई
और बहिन १२ व्रतों के स्वरूप तो दूर की बात, उनका नाम तक भी नहीं जानते, क्योंकि हमारे समाज में धर्मशिक्षा का प्राय: अभाव है। जब व्रतों के नाम और स्वरूप का ज्ञान ही नहीं हो तो फिर भला उनका धारण करना और पालन करना तो कल्पना की वस्तु हो जाती है।” “आहार-शुद्धि विचार-शुद्धि का मूल है, विचार-शुद्धि होने पर ही आचार शुद्धि सम्भव है। विचार शुद्धि के बिना आचार-शुद्धि बनावटी है, जो टिकाऊ नहीं होती। यदि आप लोक-लाज से या राजा के भय से या गुरुजनों की फटकार के भय से आचार शुद्ध रखते हैं, उसमें आपके मनोयोग का समर्थन नहीं है तो ऐसी आचार शुद्धि बालू के ढेर पर बने महल के समान है, जो न जाने कब ढह जाए।” ___'निमित्त और उपादान' नामक प्रवचन में आपने फरमाया है- “शरीर और सद्गुरु बाह्य साधन हैं, धृति, श्रद्धा आदि अन्तर के साधन हैं, बाह्य-आभ्यन्तर निमित्तों के साथ आत्मा के उपादान की अनुकूलता से सिद्धि प्राप्त होती है। केवल निमित्त और केवल उपादान से कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती।"
आचार्य श्री के इन प्रवचनों का सम्पादन पण्डित शशिकान्त जी झा के द्वारा किया गया है तथा प्रकाशन सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल जयपुर के द्वारा सन् १९६५ में किया गया था। (४) आध्यात्मिक आलोक
___ अध्यात्मयोगी आचार्य श्री का प्रवचन-साहित्य जीवन-निर्माण हेतु अनमोल निधि है। 'आध्यात्मिक आलोक' में मुख्यत: आचार्यप्रवर द्वारा सन् १९६२ में सैलाना चातुर्मास में फरमाये गए प्रवचनों का संकलन है। प्रारम्भ में ये प्रवचन चार खण्डों में प्रकाशित हुए थे, किन्तु अब ये सब एक ही पुस्तक के अन्तर्गत दो खण्डों में विभक्त हैं। प्रथम खण्ड में ४५ प्रवचन हैं तथा द्वितीय खण्ड में ३९ प्रवचन हैं, दोनों खण्डों के कुल मिलाकर ८४ प्रवचन हैं। सभी प्रवचन आध्यात्मिकता से ओतप्रोत हैं तथा पाठक को सत् तत्त्व का बोध कराते हुए उसे सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा करते हैं। भाषा एवं शैली भी बहुत सधी हुई है। प्रत्येक प्रवचन नया संदेश लेकर उपस्थित होता है। साधना, दुःख-मुक्ति, अहिंसा, सदाचार, परिग्रह-परिमाण, विचार, ज्ञान का प्रकाश, भोगोपभोग नियन्त्रण, प्रमादजय, साधना के बाधक कारण, श्रद्धा के दोष, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अममत्व, शुभ-अशुभ, विकार-विजय, कर्मादान, संघ-महिमा, सामायिक, | पौषधव्रत, निमित्त-उपादान, मानसिक सन्तुलन, स्वाध्याय आदि विभिन्न विषयों पर आचार्य श्री के प्रवचनों में उनके | साधनाशील चिन्तन का नवनीत उपलब्ध है। प्रवचन का एक अंश उद्धृत है
. “परिग्रह का दूसरा नाम 'दौलत' है, जिसका अर्थ है -'दो-लत' अर्थात् दो बुरी आदत । इन दो लतों में पहली लत है -हित की बात न सुनना, दूसरी लत है- गुणी माननीय नेक सलाहकार और वन्दनीय व्यक्तियों को न देखना, न मानना। समष्टि रूप से यह कहा जा सकता है कि परिग्रह ज्ञानचक्ष पर पर्दा डाल देता है। जिसके परिणाम स्वरूप मनुष्य अपना सही मार्ग निर्धारित नहीं कर पाता । "-पृष्ठ १७
“जीवन में शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों साधनाओं का सामंजस्य आवश्यक है। जैसे पक्षी अपने दोनों