Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड गया है। मौलिक इतिहास के प्रथम भाग की अपेक्षा द्वितीय भाग का लेखन अधिक श्रमसाध्य रहा होगा, इसमें संदेह नहीं। इस भाग का प्रथम संस्करण सन् १९७४ में वीर निर्वाण के २५०० वें वर्ष में जैन इतिहास समिति जयपुर से | निकला था तथा अब तृतीय संस्करण प्रकाशित हो चुका है।
तृतीय भाग -वीर निर्वाण संवत् १००१ से १५०० तक के धर्माचार्यों और विभिन्न परम्पराओं का इस भाग में विस्तृत वर्णन हुआ है। प्रारम्भ में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती इतिहास से सम्बन्धित कतिपय अज्ञात तथ्यों का ऐतिहासिक दृष्टि से परिचय कराया गया है। इसके अनन्तर वीर निर्वाण से देवर्द्धि काल तक धर्म और श्रमणाचार की चर्चा की गई है और उसी क्रम में चैत्यवासी परम्परा, भट्टारक परम्परा और यापनीय परम्परा की विस्तार से चर्चा करते हुए इनके कार्यों पर भी प्रकाश डाला गया है। इन परम्पराओं के प्रचार-प्रसार एवं उत्कर्ष में सहयोगी गंग वंश,
द वशों को भी चर्चा की गई है। आगम के अनुसार जैन श्रमण एवं श्रमणी के वेश तथा धर्म शास्त्र और आचार-विचार का भी निरूपण किया गया है। चैत्यवासी परम्परा का प्रारम्भ वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी में और भट्टारक परम्परा का प्रारम्भ वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी में बताया गया है। भट्टारकों की परम्परा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में चली। भट्टारकों ने ग्रामानुग्राम विहार की परम्परा को त्याग कर चैत्यों, चैत्यालयों अथवा ग्राम नगर के बाहर स्थित घरों में रहना प्रारम्भ कर दिया। श्वेताम्बर भट्टारकों को श्री पूज्यजी और इनके आवासों को आश्रम, मन्दिर जी आदि नामों से और दिगम्बर परम्परा के सिंहासन पीठों को मठ, नसियां आदि नामों से जाना गया। प्रारम्भ में यहाँ शिक्षण का कार्य होता था, किन्तु धीरे-धीरे इनके पास बड़ी धनराशि, आवास भूमि, कृषि भूमि आदि में वृद्धि होने लगी। अनेक शिक्षण संस्थान चैत्यवासी परम्परा, श्वेताम्बर भट्टारक परम्परा, दिगम्बर भट्टारक परम्परा और यापनीय परम्परा के लिए एक ओर वरदान सिद्ध हुए तो दूसरी ओर चारित्रिक अध:पतन के कारण भी बने। इन शिक्षण संस्थानों से न्याय, व्याकरण, साहित्य, जैन दर्शन , संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश आदि के ज्ञाता विद्वान् तैयार हुए तो दूसरी ओर कर्मकाण्ड, अनुष्ठान, पूजा विधान आदि भी प्रचलित हुए। ग्रन्थ में इन परम्पराओं का गवेषणापूर्ण रोचक एवं प्रेरक वर्णन हुआ है।
भगवान् महावीर के २८ वें पट्टधर आचार्य श्री वीरभद्र से लेकर ४७ वें पट्टधर आचार्य श्री कलशप्रभस्वामी तथा उनके युग की धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक घटनाओं को इस ग्रन्थ में क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है। साथ ही शुद्ध श्रमणाचार के क्रमिक ह्रास एवं विकृति जन्य परम्पराओं, सम सामयिक धर्माचार्यों एवं राजवंशों का इतिवृत्त प्रस्तुत किया गया है।
चतुर्थ भाग - इस भाग में ४८ वें पट्टधर आचार्य उमणऋषि से लेकर ६३ वें पट्टधर आचार्य श्री रूपजी स्वामी एवं उनके काल के धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक इतिवृत्त का विवरण प्राप्त होता है। यह भाग मौलिक इतिहास के तृतीय भाग का पूरक ग्रंथ है। इसमें लोंकाशाह की क्रांति एवं उनकी परम्परा का परिचय दिया गया है। अन्य भागों की तरह इतिहास का यह भाग भी गहन गवेषणा एवं शोध के अनन्तर प्रकाशित हुआ है। पूर्व पीठिका के रूप में ८० पृष्ठों में भूले बिसरे ऐतिहासिक तथ्यों, धार्मिक क्रांतियों और भारत पर मुस्लिम राज्य जैसे विषयों पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया गया है। कुमारपाल, अजय देव, खरतरगच्छ, उपकेश गच्छ, अंचलगच्छ, तपागच्छ, बड़गच्छ आदि गच्छों का वर्णन किया गया है। आचार्य फल्गुमित्र, उद्योतनसूरि जिनेश्वरसूरि अभयदेवसूरि (नवांगी वृत्तिकार) जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि हेमचन्द्रसूरि आदि आचार्यों का परिचय भी इस ग्रंथ में उपलब्ध है। लोंकागच्छ की चर्चा करते हुए लोंकाशाह के ३४ बोल, ५८ बोल आदि का भी निरूपण हुआ है। एक पातरिया