Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
अस्थि-मांस मय अशुचि देह में, मेरा हुआ निवास ॥४ ॥मेरे ॥ ममता से संताप उठाया, आज हुआ विश्वास । भेद ज्ञान की पैनी धार से काट दिया वह पाश ॥५ ॥मेरे ॥ मोह मिथ्यात्व की गांठ गले तब, होवे ज्ञान प्रकाश ।
'गजमुनि' देखे अलख रूप को, फिर न किसी की आस ॥६॥मेरे ॥
(६)
आत्म-स्वरूप
(तर्ज- दोरो जैन धर्म को मारग ...)
रूप ।
स्वरूप ॥३ ||
मैं हूँ उस नगरी का भूप, जहाँ नहीं होती छाया धूप ॥टेर || तारामंडल की न गति है, जहाँ न पहुंचे सूर । जगमग ज्योति सदा जगती है, दीसे यह जग कूप ॥१ मैं नहीं श्याम गौर तन भी हूँ, मैं न सुरूप- कुरूप । नहिं लम्बा, बौना भी मैं हूँ, मेरा अविचल रूप ॥२ अस्थि-मांस मज्जा नहीं मेरे, मैं नहिं धातु हाथ, पैर, सिर आदि अंग में, मेरा नहीं दृश्य जगत पुद्गल की माया, मेरा चेतन रूप । पूरण गलन स्वभाव धरे तन, मेरा अव्यय रूप ॥४ ॥ ॥ श्रद्धा नगरी वास हमारा, चिन्मय कोष अनूप । निराबाध सुख में भूलूँ मैं, सचित् आनन्द रूप ॥५ शक्ति का भंडार भरा है, अमल अचल ममरूप । मेरी शक्ति के सन्मुख नहीं देख सके अरि भूप ॥६॥ ॥ मैं न किसी से दबने वाला, रोग न मेरा रूप । ‘गजेन्द्र' निज पद को पहचाने, सो भूपों का भूप ॥७ ॥ ॥
॥मैं |
(61)
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स्वाध्याय-सन्देश तर्ज- (नवीन रसिया)
करलो श्रुतवाणी का पाठ, भविकजन मन मल हरने को ॥टेर ॥
बिन स्वाध्याय ज्ञान नहीं होगा, ज्योति जगाने को ।
राग-रोष की गांठ गले नहीं, बोधि मिलाने को ॥१ ॥कर लो ॥