Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड
७६१
(४)
जागृति-सन्देश __ (तर्ज- जाओ जाओ रे मेरे साधु) जागो जागो हे आत्मबंधु मम, अब जल्दी जागो ॥टेर ॥ अनन्त-ज्ञान श्रद्धा-बल के हो, तुम पूरे भंडार । बने आज अल्पज्ञ मिथ्यात्वी, खोया सद् आचार ॥१॥जागो॥ कामदेव और भक्त सुदर्शन, ने दी निद्रा त्याग । नत मस्तक देवों ने माना, उनका सच्चा त्याग ॥२॥जागो॥ अजात-शत्रु भूपति ने रक्खा, प्रभु भक्ति से प्यार । प्रतिदिन जिनचर्या सुन लेता, फिर करता व्यवहार ॥३॥जागो ॥ जग प्रसिद्ध भामाशाह हो गए, लोक चन्द्र इस बार । देश धर्म अरु आत्म धर्म के, हुए कई आधार ॥४॥जागो॥ तुम भी हो उनके ही वंशज, कैसे भूले भान । कहाँ गया वह शौर्य तुम्हारा, रक्खो अपनी शान ॥५॥जागो॥ तन-धन-जीवन लगा मोर्चे, अब ना रहो अचेत । देखो जग में सभी पंथ के, हो गये लोग सचेत ॥६॥जागो॥ तन-धन-लज्जा-त्याग-धर्म का, कर लो अब सम्मान । 'गजमुनि' विमल कीर्ति अरु जग का, हो जावे उत्थान ॥७॥जागो॥
अन्तर भया प्रकाश
(तर्ज-दोरो जैन धर्म को मारग...) मेरे अन्तर भया प्रकाश, नहीं अब मुझे किसी की आस ॥टेर ॥ काल अनंत झूला भव वन में, बंधा मोह की पाश । काम, क्रोध, मद, लोभ, भाव से बना जगत का दास ॥१॥मेरे ॥ तन-धन-परिजन सब ही पर हैं, पर की आश निराश । पुद्गल को अपना कर मैंने, किया स्वत्व का नाश ॥२॥मेरे ॥ रोग-शोक नहिं मुझको देते, जरा मात्र भी त्रास । सदा शान्तिमय मैं हूँ, मेरा अचल रूप है खास ॥३॥मेरे ॥ इस जग की ममता ने मुझको डाला गर्भावास ।