Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 802
________________ ७३४ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं शोधार्थियों के लिए उपादेय हैं। पंचम परिशिष्ट में कुछ विशेष शब्दों पर संस्कृत भाषा में विस्तृत टिप्पण दिया गया यह संस्कृत टीका अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इसकी भाषा सरल, सुबोध एवं प्रसाद गुण से समन्वित है, इसमें सूत्रोद्दिष्ट, तथ्यों का विशद विवेचन है। संस्कृत अध्येताओं के लिये यह टीका आज भी महत्त्वपूर्ण है। आचार्यप्रवर द्वारा संपादित यह संस्कृत टीका शुद्धता, विशदता एवं संक्षिप्तता की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व रखती है। इसका संपादन आचार्यप्रवर के संस्कृत ज्ञान एवं शास्त्रज्ञान की क्षमता को पुष्ट करता है। (५) उत्तराध्ययन सूत्र उत्तराध्ययन सूत्र जैन आगम-साहित्य का प्रतिनिधि सूत्र है। यह भगवान महावीर की अंतिम देशना के रूप में | प्रख्यात है। इसकी गणना चार मूल सूत्रों में होती है। छत्तीस अध्ययनों में विभक्त यह आगम द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग एवं धर्मकथानुयोग से समन्वित होने के कारण अत्यन्त समृद्ध एवं सुग्राह्य है। वीतराग वाणी का रसास्वादन करने के लिये यह उत्तम आगम है। आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा. द्वारा उत्तराध्ययन सूत्र का यह ऐसा संस्करण उपलब्ध कराया गया, जिसमें मूल गाथाओं के साथ संस्कृत छाया, अन्वयार्थ भावार्थ, एवं हिन्दी पद्यानुवाद भी प्राप्त है। सम्पूर्ण उत्तराध्ययन सूत्र तीन भागों में विभक्त है , जो सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर से प्रकाशित हैं। प्रथम भाग- इसमें एक से दस अध्ययनों का संकलन है। इस भाग में जीवन-निर्माण के प्रचुर सूत्र उपलब्ध हैं। विनयशील बनने, परीषहों पर विजय प्राप्त करने, धर्म श्रवण कर उसे आचरण में लाने, अप्रमत्त बनने, समाधिमरण अपनाने, क्षणिक विषय-सुखों में अनासक्त रहने और समय का सदुपयोग करने आदि के सूत्र सहज उपलब्ध हैं। इस भाग में प्रत्येक अध्ययन से संबंधित कथाएँ भी दी गयी हैं। संस्कृत छाया, हिन्दी पद्यानुवाद, अन्वयार्थ-भावार्थ आदि इस ग्रंथ को समझने और उसके मर्म तक पहुँचने में सहायक हैं। प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में उस अध्ययन का सार दिया गया है, जिससे पाठक पाठ्य विषय के प्रति पहले से ही जिज्ञासु एवं जागरूक हो जाता है। द्वितीय भाग -ग्यारह से बाईस अध्ययनों का विवेचन इस भाग में हुआ है। इसमें बहुश्रुत की विशेषताएँ बताते हुये शिक्षा-प्राप्ति के बाधक एवं साधक कारणों की चर्चा की गई है। हरिकेशीय अध्ययन में चांडाल जाति में उत्पन्न होने वाले हरिकेशबल मुनि के साधक-जीवन का प्रेरक वर्णन हआ है। चित्त सम्भूतीय अध्ययन में चित्त एवं सम्भूत नामक भ्राताओं के पूर्व जन्मों का वर्णन करते हुये भोग की अपेक्षा त्याग का महत्त्व स्थापित किया गया है । इषुकार अध्ययन में भृगु पुरोहित और उनके पुत्रों का वैराग्यपरक मार्मिक संवाद है। पन्द्रहवें अध्ययन में सद्भिक्षु का, सोलहवें अध्ययन में ब्रह्मचर्य समाधि स्थान का, सतरहवें अध्ययन में पाप श्रमण का, अठारहवें अध्ययन में अच्छे श्रमण का, उन्नीसवें अध्ययन में मृगापुत्र के वैराग्य का, बीसवें अध्ययन में अनाथी मुनि एवं राजा श्रेणिक के रोचक एवं प्रेरक संवाद का, इक्कीसवें अध्ययन में समुद्रपाल के गृह-त्याग और श्रमण जीवन का तथा बाईसवें अध्ययन में रथनेमि की साधना का वर्णन किया गया है। आचार्यप्रवर के सान्निध्य में तैयार हुए इस संस्करण से उत्तराध्ययन की विषयवस्तु एकदम स्पष्ट हो जाती है। तृतीय भाग -प्रथम एवं द्वितीय भाग की शैली के अनुसार ही तृतीय भाग में मूल गाथा की संस्कृत छाया, हिन्दी पद्यानुवाद, अन्वयार्थ, भावार्थ एवं विवेचन दिया गया है। इसमें तेबीसवें केशीगौतमीय अध्ययन से लेकर

Loading...

Page Navigation
1 ... 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960