Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ५३८
सन् १९७१ की बात है। गुरुदेव महामंदिर रेलवे स्टेशन के सामने पंचमी के लिये पधार रहे थे। मैंने अंगली से इशारा करते हुए बताया कि वो अपनी फैक्ट्री (दाल मिल) है। गुरुदेव ने सहज भाव से पूछा-“घर की है क्या?" उसके बाद बस दाता को देते नहीं देखा, झोली भरी अवश्य देखी।
सन् १९८५ के भोपालगढ़ चातुर्मास में एक दिन सांयकाल कुछ श्रावकों में बकराशाला (धर्मपुरा) एवं | गोशाला के चन्दे को लेकर गहमा-गहमी हो रही थी। मैं गुरुदेव के पास बैठा था। गुरुदेव ने पूछा - "क्या बात है. लोग इतने जोर-जोर से क्यों बोल रहे हैं ?” मैंने गुरुदेव के समक्ष वस्तुस्थिति अर्ज की, तो गुरुदेव तपाक से बोलेगोशाला और बकराशाला क्या ? बात तो दोनों ही जीव दया की है न ? क्या कल कोई कुत्ता बीमार पड़ जाये, तो कुत्ताशाला और गधे के लिए गधाशाला अलग बनाओगे ?” मैं गुरुदेव के वचन सुनकर अवाक् रह गया। मैं आज तक निरन्तर सोचता हूँ कि गुरुदेव के हृदय में प्राणिमात्र के प्रति कितनी अनुकंपा , कितनी करुणा भरी हुई थी?
सन् १९८४ के जोधपुर चातुर्मास में सांवत्सरिक क्षमापना हेतु तेरापंथ संघ के तत्कालीन युवाचार्य महाप्रज्ञजी | रेनबो हाउस पधारे और बातचीत के क्रम में आचार्यप्रवर पूज्य गुरुदेव से कहा कि हम छद्मस्थ अवश्य हैं, किन्तु
हमारी अवस्था छद्म नहीं है।” गुरुदेव ने तत्काल प्रत्युत्तर में फरमाया - “आप अपनी कह सकते हैं, मेरी नहीं ।” मैं | मन ही मन सोचता रहा कि गुरुदेव प्रशस्तियों से प्रसन्न नहीं होने वाले विरल महामानव हैं।
मेरे अग्रज श्री मूलचंदजी सा. बाफना एवं भाभीजी सुशीला देवी के सजोड़े मासखमण के पारणे के संबंध में निवेदन करते-करते हमारे आंसू छलक आये। गुरुदेव अपनी प्रतिकूलता के संबंध में स्नेहपूर्वक हमें समझा रहे थे पर
आंसू छलकते ही बातचीत के क्रम को बंद कर फरमाया - “मोह के चक्कर मुझे पसंद नहीं हैं । मैं उस माता का पुत्र हूँ जिस माता ने दीक्षा लेने के बाद कभी मुझसे पांच मिनट बात तक नहीं की।" अभी तो अवसर नहीं है। कालान्तर में गुरुदेव सरदारपुरा, नेहरू पार्क पधारे। शाम के समय पंचमी से वापस आते समय रास्ते में मुझसे पूछा - “घर किधर है ।” मैंने निवेदन किया - “अन्नदाता, अभी तो भाई साहब घर पर नहीं होंगे। ” गुरुदेव ने तुरंत फरमाया - "भाईसाहब से क्या काम है ? घर फरसाना हो तो अभी मैं चलने को तैयार हूँ, और पधारे। मुझे जब-जब भी यह प्रसंग याद आता है तो गुरुदेव के अनेक गुणों का सहज ही स्मरण हो आता है। गुरुदेव कितने निस्पृह थे। ____ बनाड़ में एक जैन श्रावक के घर फरसने हेतु जाने पर आचार्य श्री द्वारा संतों से केवल ठंडी रोटी और दही लाने को कहते मैंने सुना था। गुरुदेव को शंका हो गई थी कि श्रावकजी ने आज संतों के निमित्त से ही चौका किया | है। किन्तु श्रावकजी की बात सुनकर उनकी प्रबल भावना को ध्यान में रखते हुए उपर्युक्त बात कही। गुरुदेव के चातुर्य के ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो निर्दोष संयम-पालन को प्रतिबिम्बित करते हैं।
मैंने सी. ए करना छोड़, व्यापार करने का मानस बना लिया। परिवार वालों की इच्छा पढ़ाने की थी। आखिर निश्चय हुआ कि गुरुदेव की सेवा में आगोलाई चलेंगे और गुरुदेव जैसा संकेत करेंगे वैसे करना होगा। हम रागी वे | विरागी, किन्तु हृदय में विश्वास जो ठहरा । गुरुदेव के समक्ष पिताजी ने सब बात निवेदन की। पर गुरुदेव से मेरे | मनोभाव कहां छिपे थे, उन्होंने मुझसे कोई सफाई नहीं मांगी। गुरुदेव मनोभावों के कितने कुशल ज्ञाता थे !
सन् १९८४ में चातुर्मास के पश्चात् आचार्यदेव स्वास्थ्य-संबंधी कारणों से सरदारपुरा कोठारी-भवन में | विराजमान थे। वैद्य संपतराजजी मेहता का उपचार चालू था। मेरे भी श्वास में बाधा का उपचार वैद्य संपतराजजी का ही चल रहा था। वैद्यराजजी से ही मुझे ज्ञात हुआ कि मेरी और आचार्यश्री की दवाई की पुडिया समान ही हैं ।