Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
६२९ सामंजस्य था। उस पर मैं बहुत अंशों में अपनी शक्ति एवं योग्यता के अनुसार सोचता और पालन करता। मुझे भी जिनवाणी पर दृढ श्रद्धा उन्हीं के प्रताप से हुई। जितनी बार जाता, आचार्य श्री मेरी गतिविधि की पूरी जानकारी लेते। मेरी गलतियों पर भी मुझे आगाह करते। मेरे व स्वाध्याय संघ के हित के लिये ही वे फरमाते। मैं संकल्प किया करता था कि जो काम हाथ में लिया अथवा जो काम करना है उसमें श्री जिनाज्ञा मुख्य हो, स्वपर कल्याण मुख्य हो। अच्छे से अच्छे स्वाध्यायी बनें, उनकी प्रगति हो । वे प्रामाणिक जीवन जीते हुये स्वाध्याय-ध्यान में आगे बढ़ें। मेवाड़ क्षेत्र में स्वाध्यायियों के जीवन से आचार्य श्री अधिक प्रभावित थे। उनका ज्ञान - वैराग्य एवं लगन देखकर मुझ पर भी आचार्य श्री की महान् कृपा थी। मेरे पर उनका वरद हस्त था।
पाली चातुर्मास के बाद बाहर कॉलोनी में मैं दर्शन करने गया। मेरे सिर पर दोनों हाथ रखे। मुझे बहुत भोलावण दी- स्वाध्याय-संघ-शिविरों के लिए एवं स्वाध्यायियों की प्रगति के लिये। इसे मैं नहीं भूल सकता। इच्छा शक्ति, दृढ संकल्प शक्ति, काम करने की लगन उनकी प्रेरणा से मुझमें बलवती बनती गयी। इसका स्रोत वे ही महान् विभूति थे।
उसके बाद मैं दर्शन करने गया निमाज में। उनकी मूकदृष्टि, निस्पृहता, समभाव की साधना, मोहरहितता | देखकर मुझे लगा कि अब कौन मुझे प्रेरणा एवं सुझाव देगा।
मैंने मौन ही मौन रूप से संकल्प किया कि आचार्य श्री की उस महती प्रेरणा से निरंतर इसी स्वाध्याय - प्रवृत्ति में लगा रहूँ। अन्य झंझटों से प्रपंचों से बचता रहूँ। अपने जीवन को अधिकाधिक त्याग-वैराग्ययुक्त स्वाध्याय-ध्यान में लगाता रहूँ, प्रमाद से बचता रहूँ और अधिक सेवा स्वाध्याय की करता रहूँ। मुझमें सदा सद्बुद्धि सद् विचार, सत्पुरुषार्थ बढ़े, यही ज्ञानीजनों से प्रार्थना है। २५ फरवरी, १९९८
-३८२, अशोक नगर, उदयपुर (राज.)