Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं में आ जाता तो वह आचार्य श्री का हो जाता था। इस व्यक्तित्व के प्रभाव ने मेरा जीवन झकझोर दिया था। मैं इसके नाम स्मरण से हर संकट से बचता रहा। यह सन्त जीवनादर्शों और जीवन जीने की कला में बड़ा निपुण था।
यह धर्म की भावभूमि पर साधना का शंखनाद करता रहा। इस आचार्य के व्यक्तित्व का निर्माण तीर्थंकरों, गणधरों और आचार्यों की धर्मनिष्ठा और अनेकान्त के परमाणुओं से हुआ था। सचमुच यह कर्मयोगी पुरुष था। इस कर्मयोग में इसका आचार्यत्व झांकता था, वीरवाणी का यह मंगल कलश था। उत्तराध्ययन, गीता, रामायण और बाइबल का यह नवनीत था। इसने विकारों की सभी गांठें तोड़ दी थी। यह सन्त चाहता था कि समाज का बच्चा-बच्चा स्वाध्यायी और समतावान बने, न्याय-नीति पर चले, धैर्य और विवेक से काम ले, हर सदस्य के साथ सौजन्य बढ़ावे। प्रार्थना के साथ सामायिक करे। अगर बच्चों में जैनत्व उतरा और सम्यक्त्व जमा तो आगे की चिन्ता कम होगी। इस आचार्य के अन्तर में कितना दर्द था यह इनके भावों से जाना जा सकता है।
यह सन्त ज्ञानी और समता-शक्ति सम्पन्न था, इतिहासज्ञ था, विद्वान्, समालोचक, कवि, कथाकार, साहित्यकार और चतुर चितेरा था। सैंकडों मील की पैदल यात्रा में यह संत कभी नहीं घबराया , भयावनी और दुर्गम घाटियों के दुरूह पथ को पार करते हुए कभी हतोत्साहित नहीं हुआ। इस सन्त की कीर्ति कथा और गौरव गाथा दिग-दिगन्त में गूंज रही है। इसकी कीर्ति पताका फहराने को इसका साहित्य ही पर्याप्त है।
यह आचार्य था । इसके आचार्यत्व में श्रमणत्व चमकता था। संयम-साधना इस संत की बेजोड़ थी, बुराइयों को दूर करने के लिये यह संत जीवनभर शेर की तरह गरजता रहा, पाखण्ड पर इसकी बगावत थी, अंध- श्रद्धा पर | इसका प्रहार था, आडम्बरों के खिलाफ यह सदा ललकारता रहा।
-श्री ह.मु. जैन छात्रावास नं. 20, प्रीमरोज रोड बैंगलोर, 25