Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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संवत् १९७७ शाके १८४२ माघ शुक्ला द्वितीय द्वितीया २१ फरवरी १९२१ गुरुवार मध्याह्न अभिजित में | दीक्षा संपन्न हुई। उस समय की दीक्षा कुंडली निम्नलिखित है
१ केतु
४ नेप
शुक्र १२ मंगल
बुध ११ हर्षल
चंद्र
शनि
/
राहु७
उपर्युक्त दीक्षा कुंडली में वृष लग्न है। वृष लग्न का ज्योतिष में अधिक महत्त्व है। यह स्थिर लग्न है। स्थिर लग्न में संपन्न कार्य स्थिर होता है। अत: इस लग्न को सिंह लग्न की तरह माना गया है।
लग्नेश शुक्र एकादश भाव में स्थित है। यह ग्रह ग्यारहवें में शुभ माना गया है। अत: दीर्घ जीवन का रहस्य | है। लग्नेश शुक्र की मंगल के साथ युति भी शुक्र को बल देने वाली है। यह व्यक्तित्व को कठोर तपस्या से युक्त बनाती है। साथ ही शुक्र व मंगल पर शनि की दृष्टि त्याग-वैराग्य पूर्ण जीवन को सफल बनाती है।
शनि की स्थिति भी त्रिकोण में महत्त्वपूर्ण है। यहाँ शनि-बुध की परस्पर स्थिति अत्यंत श्रेष्ठ है। पंचमेश बुध दशमभाव (कर्म) में चंद्र के साथ स्थित है। साथ ही दशम एवं एकादश का स्वामी शनि पंचम में स्थित है। विद्या
और कर्म के स्वामियों का परस्पर स्थित होना अर्थात् दोनों का परस्पर परिवर्तन होना अत्यन्त शुभ है। यह शास्त्रज्ञान में पारंगत एवं कर्म में भी दक्ष बनाता है। यहां क्रियाशीलो' हि पण्डित: वाली उक्ति चरितार्थ हो जाती है।
कुण्डली में गुरु की स्थिति भी केन्द्र में शुभ है। बुध और गुरु दोनों केन्द्र स्थान में शुभ फलदायी हैं। कहा भी गया है - "शुक्रो यस्य, बुधो यस्य, यस्य केन्द्रे बृहस्पतिः।” गुरु की दृष्टि भी जोरदार है। गुरु अष्टम भाव को देखता है, जो धनुराशि का अधिपति है। यह स्थिति दीर्घ आयुष्य प्रदान करती है। साथ ही द्वादश पर दृष्टि प्रव्रज्या-योग को पुष्ट करती है।
कुण्डली में सूर्य की स्थिति भी बलवती है। केन्द्र का अधिपति सूर्य नवम भाव त्रिकोण में स्थित है। यह सूर्य | | अत्यन्त वर्चस्वी व्यक्तित्व का निर्माण करता है।
कुण्डली में राहु और केतु की स्थिति भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। राहु छठे स्थान में शुभ फलदायी होता है। | यह रोगनाशक है, बीमारी को समाप्त करता है। शरीर नीरोग रहता है। कहा भी गया है – 'त्रिषटे एकादशे राहुः ।'