Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
उनकी बात सुनकर भगवन्त ने कुछ क्षण गहन चिन्तन किया और फिर श्री मुख से मांगलिक श्रवण कराया। आपकी मंगलवाणी में ऐसी आध्यात्मिक शक्ति ऐसा अलौकिक प्रभाव और परहित की ऐसी प्रबल भावना अवश्य थी कि लड़के की देवी -विपदा तत्काल दूर हो गई और वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। उसके पश्चात् उस पर देवी प्रकोप का कभी प्रभाव नहीं पड़ा ।
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संवत् २००० के आपके चातुर्मास के पूर्व उज्जैन के नजदीक ही खाचरोद में श्री माणक मुनि जी म.सा. की दीक्षा सम्पन्न हुई। तत्पश्चात् आषाढ शुक्ला तीज को वहाँ से उज्जैन की ओर विहार किया । २४ कि.मी. का उग्र विहार कर आप उज्जैन नगर काफी करीब आ पहुँचे। एक तरह से नगर का ही बाहरी क्षेत्र था। वहाँ रात्रि व्यतीत | करने की दृष्टि से एक मकान में रुके। वह मकान सर्पोंवाला मकान के नाम से लोगों में जाना जाता था, क्योंकि सभी का यह विश्वास था कि वहाँ सर्पों का निवास है, और इसीलिए रात में कोई मनुष्य वहाँ नहीं ठहर सकता। वहाँ सर्पों के उत्पात में कुछ न कुछ अनिष्ट होना अवश्यम्भावी है, इसी भय से कोई भी उस मकान में कभी जाने का साहस नहीं कर पाता था और वह मकान वर्षों से बन्द पड़ा था । किन्तु आचार्य श्री तो निर्भयता और आत्मबल के धनी थे । वे रात भर उसी मकान में विराजे और शायद उनका आध्यात्मिक अतिशय ही रहा कि पूरी रात में सर्पों के द्वारा कोई बाधा, कोई कष्ट उपस्थित नहीं किया गया। पूर्ण शान्ति बनी रही ।
सवाईमाधोपुर में किसी मुसलमान पुत्र को एक बार एक सर्प ने काट खाया। वह उसे उपचार हेतु चिकित्सक के पास जा रहा था कि मार्ग में उसे कोई अन्य मुस्लिम बन्धु मिल गया । वह बन्धु प्रतिदिन की भाँति उस दिन भी उसी शहर में विराजित आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. का व्याख्यान सुनकर आ रहा था और उनसे बहुत प्रभावित भी था । उसने पूछा क्या बात है ? कहाँ जा रहे हो ? चिन्तित मुसलमान बोला- मेरे पुत्र को विषैले सर्प
काट लिया है, उसी को उपचार के लिए चिकित्सक के पास ले जा रहा हूँ । इस पर वह भक्त मुसलमान बोला" अरे भाई, मेरा कहा मानो, अमुक बाबा (आचार्य प्रवर) यहाँ आए हुए हैं उनके पास ले जाओ। वे बडे सिद्ध पुरुष हैं जरूर कुछ उपाय करेंगे।” ठीक है, यदि तुम्हें विश्वास है तो चलो, कहकर वह अपने पुत्र को लेकर उसके साथ आचार्य श्री के चरणों में उपस्थित हो गया और उन्हें बताया कि इस बालक को सांप ने काट खाया है । आचार्य भगवन्त ने सब सुनकर वहीं बैठे-बैठे उसे मांगलिक सुनाया और हैरत यह कि मात्र मांगलिक के प्रभाव से उसका जहर उतर गया। फलतः उस दिन से वह मुस्लिम व्यक्ति भी आचार्यप्रवर के चरणों में सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ जीवनभर के लिए समर्पित हो गया ।
• समय सन् १९८४ । अप्रेल-मई के दिनों में गर्मी अपने यौवन पर थी । जोधपुर निवासी सुश्रावक हस्तीमल जी बुरड़ मानसिक रूप से अत्यन्त व्यथित थे । गर्मी की लंबी दुपहरी की भाँति ही उनकी निराशा भी अंतहीन हो गयी थी। कारण था उनकी सुपुत्री कविता का विचित्र मानसिक व्याधि (संभावित किसी भूत प्रेत की बाधा वश) से ग्रस्त हो जाना। वह नाना प्रकार के उपद्रव करती। काले कपड़े पहनती और विचित्र हरकतें करती। अंग्रेजी का अल्प ज्ञान रखने के बावजूद धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलती थी। सभी हैरान परेशान थे। उसे काबू में करने के सभी संभव प्रयत्न किये जा चुके थे। मगर चिकित्सक भी व्याधि के मूल तक नहीं पहुँच सके। चहुँ ओर से निराशा का गहन तिमिर उन्हें घेर चुका था। जिससे पार निकलने की आशा तक धूमिल हो चुकी थी ।
मगर तभी ऐसा चमत्कार हुआ कि जिसने एक सनातन कहावत को यथार्थ का ठोस धरातल प्रदान कर दिया कि जब कोई मार्ग शेष नहीं रह जाता तब धर्म ही आडे आता है । श्री बुरड़ को ज्ञात हुआ कि आचार्य श्री हस्तीमल