Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ६८२
जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह यहाँ भी अपवाद निकले। कहते ‘अधिक भीड़भाड़ से साधक की साधना में, एकाग्रता में बाधा पड़ती है। और इसीलिए एकान्त बड़ा प्रिय था उन्हें । अध्यात्म चर्चा के अतिरिक्त अन्य निरुद्देश्य बातें करने की या भीड़-भाड़ से घिरे रहने की बजाय अधिकतर ध्यान, मौन, जप, साधना आदि में लीन रहते। बड़ा कठिन और दुरूह होता है संयम का मार्ग । पग पग पर कठिनाइयाँ प्रतिकूलताएँ_कब कैसी परिस्थितियों से साक्षात्कार हो जाए कुछ पता नहीं चलता। मगर एक सच्चा साधक हर हाल में मस्त, संतुष्ट रहता है। गुरुवर भी ऐसे ही आदर्श के पर्याय थे। कई बार भीषण गर्मी में भी लम्बा, उग्र विहार करना पड़ता। मार्ग दुरूह, ऊपर से आहारादि की सुलभता भी कम । ऐसे में कभी-कभी कोई सन्त या कोई भक्त कह बैठते कि भगवन्, आज तो हर दृष्टि से प्रतिकूलता ही प्रतिकूलता रही। मगर गुरुदेव सहमति व्यक्त करने की बजाय कहते 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' । अरे भाई, यही तो साधक-जीवन है, इसी में तो फकीरों को आनन्द आता है । यदि सभी कुछ अनुकूल हो जावे तो जीवन ही क्या?' सुनने वाले देखते रह जाते। इतने परीषह सहकर भी ऐसा संतोष ! यह था उनका भेद ज्ञान, जहाँ वे शरीर को नहीं आत्मधर्म को प्रमुखता देते थे। कभी-कभी तो आपकी आत्मरमणता देखकर देखने वाले दंग रह जाते । ऐसी ही एक घटना है आप श्री के संवत् २०३१ के सवाईमाधोपुर चातुर्मास की। चातुर्मास के दौरान एक दिन आपको भयंकर ज्वर ने ग्रसित कर लिया। ज्वर की तीव्रता इतनी अधिक बढ़ गई कि आप अचेत हो गए। मगर उस अवस्था में भी हैरत की बात यह कि आपके हाथ की माला निरन्तर, निराबाध रूप से चल रही थी। शारीरिक बल की सुप्तावस्था में मानो आध्यात्मिक बल के प्रभाव से वे माला के मोती स्वतः गति कर रहे थे। आस - पास खड़े सन्तगणों व श्रावकगणों के नेत्र यह देखकर गद्गद् हो उठे। आत्मा की यह कैसी सजगता, कैसी अद्भुत साधना ! आचार्य श्री ने शिष्य समुदाय सहित जयपुर से अलवर की ओर विहार किया। मार्ग में शाहपुरा से आगे पधारे और वन में स्थित एक मकान में विराजे । मकान छोटा सा व सर्वथा असरक्षित स्थिति वाला था। सर्यास्त होने में कुछ समय शेष था। उसी क्षेत्र में एक नर भक्षी सिंह रहता था। आचार्य श्री के पधारने के एक दो दिन पूर्व ही वह एक मनुष्य को खा चुका था। अतः उस क्षेत्र में सर्वत्र उसका आतंक छाया हुआ था। यह सर्वविदित है कि शेर के मुँह पर एक बार मनुष्य का खून लग जाने पर उसे मनुष्य-भक्षण का चस्का लग जाता है। फिर वह मानव-तन की ही ताक में लगा रहता है। अतः ऐसे नरभक्षी शेर के भ्रमण का क्षेत्र बड़ा ही जोखिम भरा व खतरनाक होता है। आचार्यप्रवर जहाँ विराज रहे थे, वह स्थान ऐसे ही क्षेत्र में था। वहाँ उपस्थित सभी श्रावकों ने आचार्य श्री से प्रार्थना की कि, 'अभी सूर्यास्त होने में समय शेष है अतः यहाँ से लगभग दो एक मील दूर स्थित ग्राम में पधार जाने की कृपा करें।' किन्तु आप में तो अनुपम आध्यात्मिक बल था। आप उपसर्गों-परीषहों से कब डरने वाले थे। आपने निर्भयतापूर्वक फरमाया, "श्रावक जी निश्चिंत रहिए। मुझे कोई खतरा नहीं है। यदि है भी तो साधु खतरों से डरा नहीं करते हैं, साध जीवन तो खतरों का घर ही होता है। अतः मुझे इस स्थान को छोड़कर अन्य कहीं नहीं जाना है, आज की रात यहीं रहना है। हाँ आप यहाँ से अवश्य चले जाइये। श्रावकों में से कोई भी यहाँ न रहे तथा हमारी सुरक्षा हेतु किसी भी प्रकार की व्यवस्था नहीं करनी है।" श्रावकों के आग्रहपूर्वक बहुत निवेदन करने पर भी आचार्य श्री ने वह स्थान नहीं छोड़ा। श्रावक गण वहाँ से रवाना हो गए। संतगण सहित आचार्य श्री रात्रि को वहीं विराजे । श्रावक नगर में तो आ गए, किन्तु हृदय में अनेक