Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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रत्न - चतुष्टय से सुशोभित युगप्रधान आचार्य
श्री जशकरण डागा
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रत्न चतुष्टय से जो मण्डित, जिनशासन उजियारे थे । गंगा यमुना जैसा संगम, ज्ञान क्रिया को धारे थे || दृढ आचारी पंचाचारी, अप्रमत्त रहते क्षण-क्षण | धन्य धन्य हो दिव्य तपस्वी, स्वीकारो श्रद्धा के सुमन || जन-जन के श्रद्धा-केन्द्र युगपुरुष आचार्य श्री हस्ती का जीवन रत्नचतुष्टय - सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप का अपूर्व संगम था । यही कारण था कि जो भी उनके सम्पर्क में एक बार भी आया, वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा । उस महायोगी का ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप कैसा था ? इसी का कुछ उल्लेख यहाँ किया जा रहा है। (१) ज्ञानज्योतिर्धर आगमवेत्ता आचार्य श्री आगमों के गहन ज्ञाता, मर्मज्ञ तथा निर्मल ज्ञान व उत्तम मेधा के धारक थे । गहन तात्त्विक प्रश्नों का समाधान भी आप सटीक संदर्भ सहित कर प्रश्नकर्ता को संतुष्ट करने में पूर्ण समर्थ थे । उदाहरणार्थ एक घटना उल्लिखित की जाती है। एक बार आचार्य श्री टोंक से विहार कर जयपुर पधार रहे थे । मार्ग में लेखक ने निवाई पहुंच कर स्वाध्यायी होने के नाते कुछ तात्त्विक प्रश्न सेवा में रखे । आचार्य | | श्री अस्वस्थ थे । अत: उन्होंने कुछ प्रश्नों का समाधान दे शेष के लिये उनकी सेवा में रह रहे आगमज्ञ पं. रत्न श्री हीराचन्द जी म.सा. (वर्तमान आचार्य श्री ) को संकेत कर दिया। वे प्रश्नों का समाधान देने लगे, किन्तु एक प्रश्न का और स्पष्ट समाधान देना आवश्यक लगा तो आप अस्वस्थ दशा में विश्राम करते हुये भी उठ बैठे। आपने मेरे प्रश्न को ध्यान से सुना । मेरा प्रश्न था कि 'जिनमें मात्र संज्वलन की कषाय रह गयी है, छः काया के रक्षक हैं, दया और करुणा के अनन्य स्रोत हैं, ऐसे अणगार भगवंतों में भी, कृष्ण लेश्या होना आगम में बताया है, सो कैसे ?' आचार्य श्री ने इसका जो समाधान दिया उसका भाव इस प्रकार था - 'देव- गुरु-धर्म पर विशेष संकट या उपसर्ग आदि आने | की दशा में, प्रमत्तता के चलते मुनियों में भी अशुभ योग आ जाते हैं । तब संक्लिष्ट परिणामोदय से मुनि भी कुछ | समय के लिए अशुभ लेश्याओं में आ जाते हैं। फिर कृष्ण लेश्या के भी भाव अपेक्षा से अनेक प्रकार के होते हैं । जिनमें कृष्ण लेश्या के जघन्य प्रकार को मुनि स्पर्श कर सकते हैं। उदाहरण के लिए भगवती सूत्र शतक १५ में, गोशालक का जीव तीसरे भव में, विमल वाहन राजा बनकर श्रमणों को सताता था । उसने आतापना लेते, सुमंगला | अणगार को तीन बार रथ की टक्कर मार, नीचे गिरा दिया। इस पर सुमंगला अणगार ने तेजो लेश्या से उसे भस्म कर दिया था, जो सातवीं नरक जाकर पैदा हुआ था। इस प्रकार संज्वलन कषाय व प्रमत्तता भी कभी-कभी कृष्ण | लेश्या को स्पर्श करने हेतु मुनि के लिये कारण बन जाते हैं। आचार्य देव के श्री मुख से ऐसा सटीक उत्तर श्रवण | कर, सभी उपस्थितजन प्रमुदित हो उठे थे ।
(२) निर्मल दर्शन - साधना के सुमेरु- आपकी दर्शनविशुद्धि की एक विशेषता थी कि सदैव आप ध्यान रखते कि किसी भी धर्म व उनके अनुयायियों के प्रति किसी प्रकार का गलत या उनको अखरने वाला व्यवहार न टोंक पधार रहे थे । मार्ग में छाण ग्राम में विश्राम करना हो। इसका एक उदाहरण है। आचार्यप्रवर एक बार दूणी था । विहार में साथ होने से, मैंने छाण ग्राम में आकर, साताकारी एक वैष्णव मन्दिर के तिबारे में ठहराने का निश्चय किया । आचार्यप्रवर वहाँ पधारे और देवालय परिसर का अवलोकन कर मुझे बुला उपालम्भ दिया। कहा- 'आप