Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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स्वाध्याय - सेवा के प्रेरणास्त्रोत
श्री • 'फूलचन्द महता
आचार्य श्री के पावन सान्निध्य एवं प्रेरणा से मेरे जीवन में परिवर्तन आया। मेरी दैनिक चर्या व दृष्टिकोण में बदलाव आया। उसका विवरण :
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मेरी माता एवं बहन सन् १९४७ में दीक्षित हुए। मेरे पिता शास्त्रों के ज्ञाता थे । वे प्रतिदिन स्वाध्याय करते थे तथा जब संत-सतियों का वल्लभ नगर में पधारना नहीं होता तो वे ही समय-समय पर व्याख्यान करते थे ।
संसारी जीवन में नौकरी करते हुए अधिकतर न्यायनीतिमय जीवन जीते हुए संत समागम में सामायिक, दया, | आयंबिल, उपवास, एकाशन कभी-कभी किया करता था । हमने उस समय डूंगला में जैन विद्यालय संचालन समिति | स्थापित की। मेवाड़ क्षेत्र में उदयपुर, चित्तौड़, भीलवाड़ा तथा कुछ मध्यप्रदेश क्षेत्रों में इसके अन्तर्गत जैन पाठशालाएं खोली। इनके निरीक्षण एवं शिविरों का आयोजन और उनमें पढ़ाने लिखाने का जिम्मा मेरा था । प्रत्येक राजकीय छुट्टी इन्हीं पाठशालाओं के निरीक्षण में बीतती थी ।
शिविरों में अध्यापन एवं संचालन मैं ही किया करता । फिर मालूम हुआ तो सन् १९७० में जोधपुर स्वाध्याय संघ से अध्यापन हेतु शिक्षक बुलाये गए जिसमें श्रीमान् सम्पतराज सा डोसी एवं श्रीमती सुशीला जी | बोहरा पधारे। उनसे सम्पर्क हुआ। उन्हें हमारा कार्यक्रम अच्छा लगा। उन्होंने मुझे सलाह दी एवं प्रेरणा की कि इन | पाठशालाओं के अध्यापक एवं अध्यापिकाओं को स्वाध्याय संघ के सदस्य बनायें। मैंने प्रेरणा देकर कई सदस्य बनाए। जोधपुर स्वाध्याय संघ के शिविरों में मुझे बुलाया गया ।
स्वाध्याय संघ के शिविरों के माध्यम से ही मैं आचार्यप्रवर के सम्पर्क में आया। वैसे मैं पूर्व में भी दर्शन कर | चुका था, किन्तु स्वाध्याय संघ से जुड़ने के बाद उनके जीवन को विवेकपूर्वक देखा तो वे शान्त, सौम्य एवं अन्दर बाहर समान दिखे। माला में, ध्यान - चिन्तन में, मौन -साधना में रहते तथा किसी से बात करने में एकमात्र व्रत - नियम, सामायिक स्वाध्याय के लिए ही प्रेरणा करते थे । अन्य कोई आडम्बर, क्रिया-काण्ड, प्रदर्शन नहीं देखकर मैं अत्यधिक | प्रभावित हुआ। जब-जब भी मैं जाता तो एक मात्र मुझे स्वाध्याय की प्रवृत्ति, स्वाध्यायियों की गति प्रगति, उनके जीवन में त्याग - वैराग्य, स्वाध्यायमय जीवन में निखार एवं अधिक से अधिक स्वाध्यायी बनें, उनका जीवन उन्नत बने वे पर्युषण में सेवाएँ दें, शिविरों में भाग लें इस प्रकार की ही प्रेरणा करते थे। यह कभी नहीं कहा कि इन स्वाध्यायियों को अपना भक्त बनायें। उनकी उदारता, विचक्षणता, निष्पक्ष दृष्टिकोण, असाम्प्रदायिकता की छाप मुझ पर पड़ी।
इसी कारण मैं अपना अन्तर निरीक्षण करता एवं अपने को मैंने असाम्प्रदायिक बनाये रखा । गुणदृष्टि, परमार्थ दृष्टि, निष्पक्ष दृष्टि कारण सूत्रों का, ग्रन्थों का और धार्मिक साहित्य का अधिकाधिक स्वाध्याय करने पर मजबूर | हुआ। शिविरों में जाने से पहले मैं खूब अध्ययन कर नोट्स बनाता। जो विषय मुझे दिये जाते और नहीं भी दिये जाते तो भी सभी का स्वाध्याय कर पठन-मनन कर नोट्स लिखता और शिविरों में पढ़ाता ।
मुझे आचार्य श्री के आशीर्वाद की, कृपा की बहुत अपेक्षा थी । आचार्य श्री के जीवन में ज्ञान व क्रिया का