Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमन
. डॉ. लगमन मिधर्वा परम श्रद्धेय आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी महाराज साहब को मैंने अपने बचपन से देखा , जाना और उनके आशीर्वचन की मंगलमय शीतल छाया में शैशव, कैशौर्य, यौवन और प्रौढ़ावस्था के हर चरण में उनसे मुझे उद्बोधन मिला, प्रेरणा मिली। मेरे पूज्य दादाजी के समय से मैंने उनके पास जाना शुरु किया। नवकार मंत्र का प्रतिदिन अपने नित्य नैमित्तिक कार्यक्रम में नियमित रूप से जप करने का व्रत उन्होंने ही मुझे दिया। मैंने संस्कृत का अध्ययन बचपन में ही शुरु किया था। वे मुझसे सुभाषित सुनते और प्रोत्साहन देते । परिवार के सब सदस्यों को धर्म ध्यान फरमाते । संस्कृत के साथ प्राकृत का अभ्यास करने का सुझाव देते। मैंने एक बार कहा कि मुझे वैष्णव परम्परा में भी गहरी रुचि है, तो उन्होंने अनेकान्त के संदर्भ में एक परिमार्जित दृष्टि दी।
उन्होंने मुझे बताया कि श्रमण-परम्परा आर्य संस्कृति की दो शाखाओं में से एक है और वैदिक संस्कृति के समानान्तर अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है। वे ज्ञान के ज्योतिपुंज थे, साधना और तपस्या के कीर्तिमान थे, प्रेरणा के स्रोत थे। वे एक शिक्षक, गुरु और मार्गदर्शक थे, अहिंसापरक एवं अनेकान्तवादी क्षमाशील श्रमण-परम्परा के प्रामाणिक एवं मानक युगपुरुष थे। उनकी पुण्य-स्मृति को, उनके कृतित्व को, उनके जीवन-दृष्टान्त को मेरा शत-शत नमन। __ १६ मार्च, १९९८
४-एफ, व्हाइट हाउस, १०-भगवानदास रोड नई दिल्ली ११०००१