Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड जी के बारे में पृच्छा कर रहे थे, वे आई हैं। दो तीन संतों का सहारा लेकर वे उठे आशीर्वाद के लिये उनके हाथ ऊपर उठे और तीन दिन से मौन गुरुवर की वाणी मुखरित हुई। अच्छा तुम आ गई। उन्होंने मेरे निमाज पहुंचने पर फरमाया - तुम जो सेवा का कार्य कर रही हो, उसे निरन्तर करते रहना, लेकिन संघ-सेवा भी बराबर करती रहना। मुझे आशीर्वाद स्वरूप मंगल पाठ प्रदान किया। मैं भाव विभोर हो गयी। मेरी आंखों में आंसू छलकने लगे। मैंने सोचा, ज्ञान की यह ज्योति अनन्त में विलीन होते समय भी अन्तिम हितोपदेश से हमारा मार्ग दर्शन कर रही है। | कितना अपनापन उनकी वाणी और व्यवहार में था। मुझ जैसे अकिंचन पर भी उनकी महती कृपा थी।
वे नारी स्वतंत्रता के पक्षधर थे, स्वच्छन्दता के नहीं। नारी स्वतंत्रता की ओट में फैशनपरस्ती की दौड़ को नकारते हुए उन्होंने कहा -
बहुत समय तक देह सजाया, घर-धंधा में समय बिताया, निन्दा विकथा छोड़ करो, सत्कर्म को जी।
धारो धारो री सौभागिन शील की चून्दडी जी ।। वे यदा-कदा फरमाया करते थे कि साधना के मार्ग में स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं है। स्त्रियों की संख्या धर्म || क्षेत्र में सदैव पुरुषों से अधिक रही है। सभी कालों में साधुओं की अपेक्षा साध्वियों की एवं श्रावकों की अपेक्षा | श्राविकाओं की संख्या अधिक रही है। मोक्ष का द्वार खोलने वाली माता मरुदेवी भी स्त्री ही थी। इन्हीं माताओं की गोद में महान पुरुषों का लालन-पालन होता है। लेकिन माता को पूज्या बनने हेतु विवेक का दीपक, ज्ञान का तेल, श्रद्धा की बाती और स्वाध्याय के घर्षण को उद्दीप्त करना होगा। इसलिये उन्होंने सामायिक के साथ स्वाध्याय को महत्त्व दिया। उनका कहना था -
स्वाध्याय बिना घर सूना है, मन सूना है, सद्ज्ञान बिना ।
घर-घर गुरुवाणी गान करो , स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो। अत एव आचार्य भगवन्त ने ज्ञान-पथ की पथिक, दर्शन की धारक, सामायिक की साधक, तप की आराधक |शील की चून्दडी ओढ़ने वाली, संयममयी एवं दया व दान की जड़त वाली जिस श्राविका रत्न की कल्पना की है |वह युग-युगों तक हम बहनों के जीवन का आदर्श बनकर हमारा पथ-प्रदर्शन करती रहेगी।
जी-२१, शास्त्रीनगर, जोधपुर |