Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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गई । वेदना समाप्त हो गई।
तप:पूत आचार्य श्री उत्कट साहसी एवं अदम्य उत्साह के धनी थे। अलवर एवं सतारा के क्षेत्रों में गाँव वालों द्वारा सता जा रहे काले सांपों को उनसे छुड़ाकर अपनी झोली में डालकर दूर जंगल में जाकर छोडा उन्हें अभय प्रदान किया।
___ आपकी ध्यान के प्रति विशेष लगन थी । जब कभी भी ध्यान के विषय को लेकर चर्चा चलती तो आप || विशेष आह्लादित नजर आते थे। ध्यान शिविर लगा कर ध्यान साधकों की आपने अच्छी टीम तैयार की।
आप समूचे देश तथा विदेश में रहे भक्तों द्वारा सदैव पूजे जाते रहे।
नमस्कार मन्त्र के तीन पदों पर आप अधिष्ठित रहे । आचार्य, उपाध्याय एवं साधु के परमेष्ठि पदों की अपने | शोभा बढ़ायी । परमेष्ठि के १०८ गुणों में से ८८ गुण आपमें एक साथ मिला करते थे। आपको की गई वंदना पूरे गुरु पद की वंदना होती थी, फिर भला भक्तों के दुःख दूर क्यों न होंगे। पंच परमेष्टी में से आप तीन पदों के धारक थे। जैन जगत के समूचे इतिहास का अवलोकन करने पर भी शायद ही कोई ऐसा आचार्य दृष्टि गोचर होगा, जिसमें एक साथ आचार्य, उपाध्याय एवं साधु पद विद्यमान रहा हो, अत: आप जैन इतिहास के निराले ही श्रुतधर थे। आप ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे।
आपके सान्निध्य में अनेक भव्यात्माओं ने संसार की नश्वरता का बोध पाकर प्रवज्या ग्रहण की और आत्मोद्धार किया। कई आत्मार्थी सन्त महासतियों ने अपना भव-सुधार किया। आपकी संगति से अनेक संसारी प्राणी पारस के स्पर्श से सोना बनने की भाँति दुर्जन से सज्जन और कुव्यसनी से सुव्यसनी बने। अनेक ने आत्म-विकार नष्ट किये। इतने बड़े महान् गुरु का सान्निध्य मिलने के बाद भी कतिपय आत्माओं ने लिया हुआ संयम भी छोड़ दिया। उस पर मुझे एक कवि की पंक्तियाँ प्रस्तुत करने का अवसर मिल रहा है
परसी पारस भेटिया, मिटग्या लोह विकार।
तीन बात तो ना मिटी, बांक धार अरू भार ।। आप जैसे पारस के स्पर्श के पश्चात् भी वे अपनी वांक, धार और भार के कारण संसाराभिमुख हुए। यह | उनके कर्मों की ही विडम्बना है।
लेना संजम सहज है, पालन अति दुश्वार ।
खुले पाँव से जोर दे, चलना असि के धार ।। आप अपने उद्बोधनों में अनीति का खुलकर विरोध करते थे। अनीति आपको अप्रिय थी।
आपके पावन चरणों से क्षेत्र-स्पर्शन की भावना निर्धन-अमीर सभी किया करते थे। कहा भी है कि शीलवान को सभी चाहते हैं
शीलवंत निर्मल दशा, पा परिहै चहु खूट।
कहे कबीर ता दास की, आस करे बैकुंठ॥ __ काल ज्ञान के अधिकारी पूज्य श्री को अपनी आयुष्य की समाप्ति का आभास हो आया था। उन्होंने अपना अंतिम समय नजदीक जानकर मारणान्तिक तपाराधन के लिये उपयुक्त स्थान निमाज को चुना जिसके बारे में सन् १९८४ के वर्षावास में रेनबो हाउस जोधपुर में अस्वस्थता की स्थिति में श्री हीरा मुनि जी म.सा. द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर में आपने फरमाया था कि मुख्य राज मार्ग पर बसी नगरी हो, देवालय हो, हरा भरा वन हो, पास में ज्ञान शाला हो एवं जलस्रोत (कुँआ) हो ये पाँच बातें जहाँ मिलती होंगी वहाँ जानना कि मेरा संथारा - समाधि मरण तप