Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
६०७ बंगले पर विराज रहे थे। उस समय मेरी दोहित्री बहुत बीमार थी। ३-४ दिन बच्चों के अस्पताल में रहने के बाद भी स्वस्थ नहीं हो पाई तो हम घर ले आए। श्री दिग्विजय जी कोठारी ने कहा कि 'आप इसे गुरुदेव की मांगलिक क्यों नहीं सुनवा देते।' दूसरे दिन प्रातः काल गुरुदेव की सेवा में ले गये। गुरुदेव ने ज्योंही मांगलिक सुनाई वैसे ही उसकी तबीयत ठीक होती चली गई। मांगलिक में जैसे कोई प्राणदायी शक्ति हो । डाक्टर की दवाओं ने जो काम नहीं किया वह मात्र एक मांगलिक से हो गया।
इसी प्रकार की एक घटना और है। आचार्य श्री जयपुर में ही श्री हीराचन्द जी हीरावत के आवास-स्थल पर विराज रहे थे। मेरे पौत्र पारसमल (सौरभ) की तबीयत अचानक खराब हो गई। गुरुदेव की सेवा में पारसमल को लेकर आए। गुरुदेव ने मांगलिक फरमाई। तुरन्त ही आराम हो गया। उसके बाद आज दिन तक उसकी तबीयत खराब नहीं हुई।
प्राचीन पत्रों का सूचीकरण करने के अलावा मेरे पास एक और कार्य रहा करता था। गुरुदेव के सान्निध्य में जहां कहीं भी दीक्षा का प्रसंग होता वहाँ पर ओघा एवं पूंजनी बांधने का काम मेरे जिम्मे होता था। गुरुदेव ने मुझे जो भी कार्य सौंपा उसे सम्पन्न करने में मुझे बहुत आनन्द आता था। गुरुदेव की कृपा से जिनवाणी पत्रिका के संचालन का कार्य भी संभाला था। मेरे प्रति गुरुदेव का विश्वास देखकर मुझमें आत्मबल का संचार होता था। गुरुदेव का स्मरण ही अब मेरा मार्गदर्शक है। उनका स्मरण कर प्रमोद का अनुभव होता है। (उल्लेखनीय ही परम भक्त | श्रावक श्री बोथरा सा. अब हमारे बीच नहीं रहे, उनकी भावनाएँ ही हमारी मार्गदर्शक हैं। -सम्पादक ) २४ जनवरी, १९९८
गली पुरन्दर जी, रामलालजी का रास्ता,
जयपुर (राज.)