Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
View full book text
________________
६०२
किया ।
आज भी जब स्मृतियों के धवल पृष्ठों को पलटता हूँ तो असीम आनंद की अनुभूति होती है ।
श्री कांतिसागर जी से साक्षात्कार
•
नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
अहमदाबाद चातुर्मास में जैन धर्म के मौलिक इतिहास के लेखन का कार्य गुरुदेव कर रहे थे। उन्हीं दिनों | इतिहास से संबंधित सामग्री लाने हेतु पं. शशिकांत जी झा के साथ मैं मुनि श्री कान्तिसागर जी के पास उदयपुर गया। मुनि श्री कान्तिसागर जी का गौरवर्ण, भव्य ललाट धवल केश राशि, विशाल वक्ष स्थल, देदीप्यमान | व्यक्तित्व, किसी भी व्यक्ति को एकाएक आकर्षित कर लेता था, मुनि श्री की धाराप्रवाह संस्कृत एवं उनके पाण्डित्य | से ऐसा लगता था, मानो उनकी जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती विराजमान हो ।
गुरुदेव का संदेश सुनकर मुनि श्री कांतिसागर जी भाव विभोर हो गये । सम्प्रदायवाद से परे हटकर गुरुदेव | के ज्ञान और क्रिया के प्रति अपने उच्चतम भाव प्रकट किये।
यह तीन दिनों का प्रवास बहुत ही सार्थक रहा। हमारे लौटने के कुछ दिनों बाद मुनि श्री ने लगभग १००० पृष्ठों की सामग्री आचार्य श्री की सेवा में भेजी ।
आचार्य श्री ने सारी सामग्री के अवलोकन के पश्चात् मैं पुनः मुनि श्री की सेवा में गया। उस समय मुनि श्री | उदयपुर महाराणा के निवेदन पर एकलिंगजी में विराज रहे थे। एकलिंगजी में उनके साथ में तीन दिनों तक रहा। इन तीन दिनों मे मुनि श्री ने मुझ पर असीम स्नेह उंडेला । आचार्य श्री के ज्ञान एवं क्रिया पक्ष की बार बार प्रशंसा करते थे। ये तीन दिन मेरे जीवन के स्वर्णिम दिनों में थे ।
• भक्त का समर्पण
पुरातत्त्व की वस्तुओं का व्यापार करने वाला एक सज्जन गुरुदेव की सेवा में बोरियां भरकर प्राचीन ग्रंथ लाया और गुरुदेव से निवेदन किया कि जो ग्रन्थ आपको पसंद हो रख लिरावें ।
गुरुदेव ने ढेर सारे ग्रंथों में से उपयोगी ग्रंथ छाँटने का कार्य मुझे सौंपा। गुरुदेव के संकेत के अनुसार मैंने बहुत से उपयोगी ग्रंथ अलग निकाले । उस व्यक्ति ने सारे ग्रंथ बिना मूल्य लिये भेंट करने की इच्छा प्रकट की । इन ग्रंथों को जोधपुर के सिंहपोल में स्थित श्री जैनरत्न पुस्तकालय में भिजवा दिया गया।
उस अजैन व्यक्ति की गुरुदेव के प्रति असीम श्रद्धा-भक्ति देखकर मैं आश्चर्य चकित रह गया । दाढ़ी वाला
•
२०२७ के मेड़ता चातुर्मास में गुरुदेव के साथ तीन वैरागी बालक थे । उनमें अशोक नाम का वैरागी बालक बहुत ही मेधावी था। अशोक के माता-पिता झगड़े की नीयत से मेड़ता आये हुये थे । श्रावक वर्ग को इस बात की भनक लगी तो सतर्क हो गए।
श्री चम्पालाल जी कोठारी ने गुरुदेव से निवेदन किया कि मैं आपके कमरे के बाहर सोना चाहता हूँ । गुरुदेव सहज स्वीकृति दे दी । रात को दो बजे के आसपास गुरुदेव के कमरे में तेज प्रकाश हुआ जिसे देखकर चम्पालालजी घबरा गए और उत्सुकता वश कमरे के अन्दर झाँका तो पाया कि एक दाढ़ी वाला बाबा गुरुदेव के