Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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जीवन निर्माता
एक दिन गुरुदेव ने मुझे प्रश्नवाचक मुद्रा में पूछा- 'आसूलाल ! उत्कोच ? प्रथमतः मैं समझ नहीं सका, किन्तु | बाद में समझने पर मैने नकारात्मक उत्तर दिया, तो गुरुदेव ने कहा त्याग करो, जीवन पर्यंत किसी प्रकार की रिश्वत नहीं लेना । बस यही व्रत सेवाकाल में मेरा सम्बल बना और मैं मानो काजल की कोठरी से साफ निष्कलंक निकल | गया । यद्यपि कई प्रकार के प्रलोभनों
धमकियों, उपालम्भों से दो चार करता रहा
साथ ही ज्यों-ज्यों मेरे इस व्रत
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| के बारे में जानकारी फैली तो मेरी और मेरी लेखनी की विश्वसनीयता भी बढ़ी
अलग
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
मैं मैकदे की राह से होकर गुजर गया। वरना सफर हयात का कितना तवील था ।
साथ- साथ ही गुरुदेव अपने गुरुमंत्र का जादू मुझ पर भी डालते रहे और सामायिक स्वाध्याय की प्रेरणा देते | रहे। पहले पाँच सामायिक मासिक से प्रारम्भ कर के धीरे धीरे नौकरी में तरक्की के साथ इस तरफ भी तरक्की | करने का उद्बोधन दिया । फिर जैन आगम के स्वाध्याय का प्रोत्साहन दिया। क्योंकि रेलवे में अंग्रेजी भाषा का प्रचलन था । आगमों के अंग्रेजी अनुवादों के अध्ययन का मार्गदर्शन दिया और मैंने सर्वप्रथम हरमैन जैकोबी द्वारा | अनूदित आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि का परिचय प्राप्त किया। साथ ही मेरे पुत्रों को भी इस अध्ययन | आकर्षण एवं आनन्द का अनुभव हुआ । इस अनन्त उपकार से मुझे आगे जाकर जो उपलब्धियाँ हुई उनका जिक्र इस लेख के अंत में द्रष्टव्य है ।
अजमेर में रेलवे के दफ्तरों में करीब १००० व्यक्ति कार्यरत थे। अधिकांश अजैन थे जो जैन मुनियों के | क्रियाकलाप से अपरिचित थे, किन्तु गुरुदेव के सामीप्य से वे कर्मचारी जैन मार्ग से परिचित ही नहीं लाभान्वित भी | हुए। क्योंकि गुरुदेव ने अपनी धीर गंभीर प्रसन्न शैली में उनका इस प्रकार का शंका-समाधान किया कि उनके हृदय | में श्रद्धा का बीजारोपण हो गया । फलस्वरूप रेलवे के कैंटीन हाल में गुरुदेव के प्रवचन का आयोजन हुआ। दिन में ३ बजे ग्रीष्म ऋतु अपने उत्कर्ष पर और हाल ठसाठस भरा हुआ था। पंखों के नीचे तो लोग गर्मी से त्रस्त थे । फिर | गुरुदेव के पदार्पण के साथ पंखे बंद और कुछ क्षणों की खलबली, किन्तु ज्यों ही गुरुदेव ने अमृत वाणी की वर्षा तो एकदम अपार शांति । संक्षेप में वह प्रवचन सभा चिरस्मरणीय बन गई और आचार्यप्रवर पूज्य हीराचंद जी महाराज साहब जो वहाँ उपस्थित थे, अभी तक उसका स्मरण करते हैं ।
सबको जाना है
इस प्रकार की अनेक छोटी-छोटी घटनाएँ हैं, किन्तु नाविक के तीर की भांति प्रभावपूर्ण हैं । १९८१ में मेरी माताश्री के देहान्त ने मेरे पिताश्री को अत्यंत विचलित - विक्षिप्त सा कर दिया। ऐसे में गुरुदेव के दर्शन और उनकी | शरण में जाना ही उचित प्रतीत हुआ। पिता श्री का मानसिक सन्तुलन बिगड़ सा गया था। उन्हें बार-बार मेरी माता | की याद सताती थी। वे गुरुदेव के पास गए। दुःख का कारण गुरुदेव को पता था। गुरुदेव ने पिताश्री को ऐसा मन्त्र | दिया, जिसे प्राप्त कर पिता श्री का जीवन बदल गया। जब मेरे पिता श्री दर्शन कर लौटे तो वे एक भिन्न व्यक्ति | थे । न वे दुःखी थे न चिन्तित । सर्वथा सामान्य । कारण उन्हीं के शब्दों में गुरुदेव के श्री मुख से उच्चरित | मंत्र- "सबको जाना है बालकों को, युवाओं को, सबको एक दिन जाना है। यह कोई अनहोनी नहीं न चिन्ता की | बात ।” उनके जीवन का एक सूत्र बन गया। फिर तो जब भी उनको चिन्ता सताती तो उनकी जबान पर यही मंत्र