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________________ ५९० जीवन निर्माता एक दिन गुरुदेव ने मुझे प्रश्नवाचक मुद्रा में पूछा- 'आसूलाल ! उत्कोच ? प्रथमतः मैं समझ नहीं सका, किन्तु | बाद में समझने पर मैने नकारात्मक उत्तर दिया, तो गुरुदेव ने कहा त्याग करो, जीवन पर्यंत किसी प्रकार की रिश्वत नहीं लेना । बस यही व्रत सेवाकाल में मेरा सम्बल बना और मैं मानो काजल की कोठरी से साफ निष्कलंक निकल | गया । यद्यपि कई प्रकार के प्रलोभनों धमकियों, उपालम्भों से दो चार करता रहा साथ ही ज्यों-ज्यों मेरे इस व्रत 1 | के बारे में जानकारी फैली तो मेरी और मेरी लेखनी की विश्वसनीयता भी बढ़ी अलग • नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं मैं मैकदे की राह से होकर गुजर गया। वरना सफर हयात का कितना तवील था । साथ- साथ ही गुरुदेव अपने गुरुमंत्र का जादू मुझ पर भी डालते रहे और सामायिक स्वाध्याय की प्रेरणा देते | रहे। पहले पाँच सामायिक मासिक से प्रारम्भ कर के धीरे धीरे नौकरी में तरक्की के साथ इस तरफ भी तरक्की | करने का उद्बोधन दिया । फिर जैन आगम के स्वाध्याय का प्रोत्साहन दिया। क्योंकि रेलवे में अंग्रेजी भाषा का प्रचलन था । आगमों के अंग्रेजी अनुवादों के अध्ययन का मार्गदर्शन दिया और मैंने सर्वप्रथम हरमैन जैकोबी द्वारा | अनूदित आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि का परिचय प्राप्त किया। साथ ही मेरे पुत्रों को भी इस अध्ययन | आकर्षण एवं आनन्द का अनुभव हुआ । इस अनन्त उपकार से मुझे आगे जाकर जो उपलब्धियाँ हुई उनका जिक्र इस लेख के अंत में द्रष्टव्य है । अजमेर में रेलवे के दफ्तरों में करीब १००० व्यक्ति कार्यरत थे। अधिकांश अजैन थे जो जैन मुनियों के | क्रियाकलाप से अपरिचित थे, किन्तु गुरुदेव के सामीप्य से वे कर्मचारी जैन मार्ग से परिचित ही नहीं लाभान्वित भी | हुए। क्योंकि गुरुदेव ने अपनी धीर गंभीर प्रसन्न शैली में उनका इस प्रकार का शंका-समाधान किया कि उनके हृदय | में श्रद्धा का बीजारोपण हो गया । फलस्वरूप रेलवे के कैंटीन हाल में गुरुदेव के प्रवचन का आयोजन हुआ। दिन में ३ बजे ग्रीष्म ऋतु अपने उत्कर्ष पर और हाल ठसाठस भरा हुआ था। पंखों के नीचे तो लोग गर्मी से त्रस्त थे । फिर | गुरुदेव के पदार्पण के साथ पंखे बंद और कुछ क्षणों की खलबली, किन्तु ज्यों ही गुरुदेव ने अमृत वाणी की वर्षा तो एकदम अपार शांति । संक्षेप में वह प्रवचन सभा चिरस्मरणीय बन गई और आचार्यप्रवर पूज्य हीराचंद जी महाराज साहब जो वहाँ उपस्थित थे, अभी तक उसका स्मरण करते हैं । सबको जाना है इस प्रकार की अनेक छोटी-छोटी घटनाएँ हैं, किन्तु नाविक के तीर की भांति प्रभावपूर्ण हैं । १९८१ में मेरी माताश्री के देहान्त ने मेरे पिताश्री को अत्यंत विचलित - विक्षिप्त सा कर दिया। ऐसे में गुरुदेव के दर्शन और उनकी | शरण में जाना ही उचित प्रतीत हुआ। पिता श्री का मानसिक सन्तुलन बिगड़ सा गया था। उन्हें बार-बार मेरी माता | की याद सताती थी। वे गुरुदेव के पास गए। दुःख का कारण गुरुदेव को पता था। गुरुदेव ने पिताश्री को ऐसा मन्त्र | दिया, जिसे प्राप्त कर पिता श्री का जीवन बदल गया। जब मेरे पिता श्री दर्शन कर लौटे तो वे एक भिन्न व्यक्ति | थे । न वे दुःखी थे न चिन्तित । सर्वथा सामान्य । कारण उन्हीं के शब्दों में गुरुदेव के श्री मुख से उच्चरित | मंत्र- "सबको जाना है बालकों को, युवाओं को, सबको एक दिन जाना है। यह कोई अनहोनी नहीं न चिन्ता की | बात ।” उनके जीवन का एक सूत्र बन गया। फिर तो जब भी उनको चिन्ता सताती तो उनकी जबान पर यही मंत्र
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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