Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तत्त्वज्ञाता महान् योगी : आचार्य श्री
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मा वेत्ति तत्त्वतः
श्री ऋषभराज बाफणा
हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य प्रभु-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है । उन हजार-हजारों यत्न करने वाले योगियों में से कोई ही तत्त्व प्राप्त करने में सफल होता है ।
इस श्लोक को पढ़कर मुझे एकदम पूज्य गुरुदेव आचार्य भगवन्त की याद आ गई । वे लाखों में अपनी तरह | के एक ही महापुरुष थे, जिन्होंने अपने मूल लक्ष्य को कभी भी विस्मृत नहीं किया।
मेरे पूज्य पिताजी श्री जालमचंदजी सा. को आचार्य भगवन्त के सान्निध्य के कई अवसर मिले। वे जैन रत्न | विद्यालय के करीब २५ साल तक मंत्री रहे। गांव के प्रतिकूल वातावरण के संबंध में कभी आचार्य भगवन्त की | सेवा में अर्ज करते तो फरमाते कि अपनी सेवा नि:स्वार्थ होनी चाहिए फिर कोई अगर गाली भी निकाले, हमें सहजता से सहेज लेना चाहिये। तभी हमें उस कार्य में सफलता मिलती है ।
पंडितजी श्री दुःखमोचन जी झा चातुर्मास के दौरान भोपालगढ़ विराजते । वे आचार्य श्री को पढ़ाया करते । शाम को प्राय: बड़े पिताजी सा. श्री जोगीदासजी, पिताजी सा. श्री जालमचंदजी पंडितजी के पास अक्सर जाया करते। उस समय पंडितजी सा. फरमाते कि आचार्य श्री उनका (पंडितजी का) आदरभाव रखते हैं तथा साथ में यह भी कहते कि आचार्य श्री बहुत ही विलक्षण प्रतिभावान हैं।
अध्ययन में आचार्य भगवन्त की अनन्य रुचि थी । सोते समय अगल-बगल में छोटे-छोटे कंकर रख कर सोते, करवट बदलते ही कंकरों की चुभन से नींद खुल जाती और उठकर बैठ जाते व दिनभर में जो पढ़ा उसको पुनः-पुनः याद करते। ऐसा पिताजी सा. ने मुझे बताया ।
भोपालगढ़ रत्नवंश का एकछत्र क्षेत्र रहा है। उस समय भोपालगढ़ में अन्यान्य सम्प्रदायों के मुनिराजों के चातुर्मास होते रहते । आचार्य भगवन्त ने कभी-भी सम्प्रदायवाद का पोषण नहीं किया। सम्प्रदाय को वे आत्मोत्थान | का एक साधन मानते । स्वयं हमेशा गुणीजनों का आदर करते तथा हमें भी यही करने के लिये प्रोत्साहित करते । | हमेशा यही फरमाते कि गुण के ग्राहक बनो, त्यागियों का हमेशा हृदय अखण्ड बाल-ब्रह्मचारी आत्म-साधना के धनी, उस नगरी के भूप जहाँ छाया-धूप नहीं होती, जिसने भेद विज्ञान से भवभव के बन्धन काट दिये, उस सत्पुरुष के लिये किसी के मन की बात जान लेना, किसी विशेष घटना | की पूर्व सूचना मिल जाना, किसी के संकट का पूर्वाभास हो जाना मामूली बात थी ।
'आदर करो।
पाली से विहार करके गुरुदेव थोड़े समय के लिये सोजत में विराजे । एक रात फरमाया - " किसी ने कहा है कि समुद्र में एक बूँद रहे तो क्या, नहीं रहे तो क्या ! दूसरे दिन फिर फरमाया कि ऐसा रामकृष्ण परमहंस ने कहा था। मेरे मन में उस समय यही विचार कौंधा कि आचार्य भगवन्त 'मैं' को 'है' में विलीन करने का निश्चय कर रहे हैं। आगे जाकर यही विचार संथारे के रूप में सार्थक हुआ।