Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
५६१ ठहरने की स्वीकृति ले ली। गुरु महाराज से गेस्ट हाउस में पधारने की विनति की। गुरु महाराज ने फरमाया - मैं गलत परम्परा नहीं डालूँगा, न सुविधा भोगी बनूँगा।
थोडी ही दूर पर एक विशाल बड़ का पेड़ था और चबूतरा सा बना हुआ था। गुरु महाराज व सब संतों ने वहीं आसन बिछाया, प्रतिक्रमण किया, ज्ञान साधना की और रात्रि में वहीं विश्राम किया। समाचारी और नियमों के अटूट होने से घने जंगल में पेड़ के नीचे बिना हिचक और डर के विश्राम करने को रुक गये। मैंने ऐसा अनूठा उदाहरण पहली बार ही देखा।
विहार के समय गुरु महाराज के पांव में छाले पड़ जाते थे। कभी-कभी पैरों में कपड़ा बांधकर विहार करते थे। खिलाड़ी खेलते समय घुटनों पर सलेटी रंग का मोटे कपड़े का पेड़ लगाते हैं। सुगनचंदजी बोकडिया व बादलचंदजी घुटने दुःखने से वैसा पेड लगाते थे। मैने गुरु महाराज से अर्ज की कि ये पेड आप पैरों में लगा लीजिये ताकि छाले में दर्द नहीं होगा और विहार आसानी से होगा। गुरु महाराज ने फरमाया कि अगर मैं जरा भी समाचारी में ढीला पड़ गया और ये पेड लगाने लगा तो भविष्य में संत-सती पेड तो एक तरफ मोम, प्लास्टिक और न जाने क्या क्या उपयोग करने लगेंगे, इसलिए मैं संघहित में छालों की परवाह नहीं करता। कितनी दूरदृष्टि !
___ एक रात भोपालगढ में ब्रह्मचर्य के विषय की चर्चा चल रही थी। गुरु महाराज ने फरमाया कि ६० वर्ष की उम्र होने पर जाट माली भी घर के बाहर सोते हैं, या अलग अकेले सोते हैं। जैनों को कम से कम एक शिक्षा तो उनसे अवश्य लेनी चाहिये कि ६० की उम्र के बाद चौथे व्रत का नियम ले लें। जाट माली, विश्नोई अक्सर गुरु महाराज के पास आते रहते थे। उनकी बात का भी गुरु महाराज कितना खयाल रखते थे।
जलगांव में नवजीवन मंगल कार्यालय, जहाँ चातुर्मास में गुरु महाराज विराजते थे, मेरा मकान चार किलोमीटर दूर पडता है। श्री गौतम मुनिजी जो दो साल पूर्व ही दीक्षित हुए थे, एक दिन गोचरी हेतु घर पधारे । मैंने कुछ कपड़े खद्दर के बहरा दिये। गौतम मुनिजी ने इन्कार कर दिया। मेरे जोर देने पर कि अगर गुरु महाराज मना करें तो वापिस कर दीजियेगा। स्थानक में गौतम मुनिजी से गुरु महाराज ने पृच्छा की कि ये खद्दर के कपडे कहां से लाए? उन्होंने मेरा नाम बताया। गुरु महाराज ने फरमाया कि भंवरलाल तो खद्दर पहनता नहीं , खरीद कर लाया होगा। मैंने भी तत्काल उसके बाद से खद्दर के कपड़े ही पहनने का व्रत लिया और प्रायश्चित्त भी। मैं प्रिय श्रावक, पर बिना लिहाज और बगैर लाग लपेट लिहाज के खरी खरी बात कही। गुरु का उपालम्भ देना एक तरह से बैल की लगाम खींचना ही है ताकि शिष्य दुबारा भूल न करें व नियमानुसार चलें।
मेरे पिताजी की कन्या पाठशाला संचालन में विशेष अभिरुचि थी। मैंने व मेरे भाइयों ने उनकी स्मृति में कन्या पाठशाला बनाकर समाज के अन्तर्गत संचालित करने की भावना से स्थानक के पास ही जहाँ बच्चियां आराम से आ जा सकें, जमीन क्रय कर पाठशाला भवन बनाया, पर एक साल तक समाज की ओर से संचालन करने की तत्परता न दिखने पर मन ही मन, इसे सरकार को सुपुर्द करने का मानस बनाया। मन में यही विचार लिए संवाई माधोपुर में विहार में शामिल होने गया। वंदन करके बैठा तो फरमाया कि समाज हमेशा बड़ा होता है। क्या श्रद्धा में फर्क आ गया है जो समाज के निमित्त बनी चीज सरकार को देने का खयाल आया है? मैं तो हक्का बक्का रह गया कि मेरे अंतरंग विचार उनको कैसे मालूम पड़ गये, जबकि मैंने हमेशा साथ रहने वाले रिखबराजजी बाफणा को भी नहीं कहा था। थोडी देर मैं एकदम गुमशुम हो गया। आज गुरु कृपा से भोपालगढ का समाज पाठशाला को सुचारु रूप से चला रहा है। सरकारी मान्यता भी मिल गयी है। अभी करीब २०० बालिकाएँ विद्याध्ययन कर रही