Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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स्थिता - आत्मान: वा यक्षादिशासनदेवता अनेन इति मन्त्रः' जिसके द्वारा परम पद में स्थित उच्च आत्माओं का अथवा यक्षादि शासन देवों का सत्कार किया जाय - वही मंत्र है। दिव्य ज्योतिर्मय आत्म तत्त्व का मन्त्र है और वह मनसात्मक 'मन्' एवं पालनात्मक 'त्र' के संयोग से घटित होता है - इसी से 'मननात् त्रायते इति मन्त्रं' कहा गया है। यही मनन, चिन्तन व ध्यान के शक्ति-स्रोत को प्रवाहित कर आत्म - चैतन्य की ओर ले जाता है। गुरु के श्रीमुख से प्राप्त मंत्र की बीज शक्ति शनैः शनैः वृक्ष में पुष्पित, पल्लवित व पूर्ण होती है। मेरी दृढ़ धारणा है कि गुरु अपने मंत्र से शिष्य के जीवन को उसके अन्तर्बाह्य को सर्वथा, सर्वदा और सर्वभावेन प्रभावित कर जीवन पथ का संधान करते हैं। मैं आज उस गुह्य रहस्य को समझ पाया हूँ - यही समझ पाया हूँ कि ऐसा मंत्र ही शक्तिसंपन्न होकर स्व-पथ-सुपथ पर ले जाता है और मंत्र-चैतन्य आत्म-चैतन्य का मार्ग प्रशस्त करता है। जानता हूँ अपनी लघुता व सीमा और अकिंचनता, मैं वह चैतन्य नहीं पा सका - न अपना मार्ग ही प्रशस्त कर सका- पर कभी कभी ज्योति दर्शन करने की साध अवश्य घनीभूत हो जाती है - "माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि य वीरियं” मनुष्यत्व, धर्म-श्रवण, धर्म-श्रद्धा और संयम - ये चार तत्त्व प्राप्त नहीं होते, जब तक सम्यक् श्रुत श्रवण का सुअवसर उपलब्ध नहीं होता। गुरु से उपलब्ध मंत्र ही इस उपलब्धि का श्रेयस् है। मैं अपनी लघुता में उनकी महानता नहीं रख पाया और यही पराभूत स्थिति है। एक घटना याद आ गयी। महात्मा गाँधी को सियारामशरण गुप्त अपनी कविता सुना रहे थे - "तेरे तीर्थ सलिल से प्रभु यह मेरी गगरी भरी-भरी”। पार्श्व में बैठे महादेव भाई हँसे। पूछने पर उन्होंने कहा कि तीर्थ सलिल से गगरी भरी तो सही, पर वह सलिल कहीं गगरी के ज्ञात-अज्ञात छिद्र से निरन्तर बाहर तो नहीं जा रहा। आचार्य श्री के तीर्थ सलिल से मेरी -बहुतों की गगरी भरी गयी, पर हम उस पवित्र सलिल को जीवन में कितना रख पाये ? कहीं जीवन गगरी के छिद्रों से वह पुन: बाहर निकलता रहा और हम वैसे ही जड़वत् ही रहे? मैं तो | अपनी जड़ता से अनभिज्ञ नहीं हूँ - औरों की नहीं जानता।
___ आज मानवीय संस्कृति - संसृति का ह्रास हो रहा है - भौतिकवादी भोगवादी प्रवृत्तियों ने चारों ओर मूल्यहीनता, अनैतिकता को निरस्त कर विचित्र विसंगति - व्याघात उपस्थित कर दिया है। समाजशास्त्रियों ने उद्घान्त व्यक्ति को A lonely crowd with completely enstranged की संज्ञा दी है। स्पर्धा है सत्ता, सम्पत्ति और स्वार्थ | की। युधिष्ठिर ने कहा था -
यत्राधर्मो धर्मरूपाणि विभद्र कृत्स्नो धर्मो दृश्यतेऽधर्मरूपः ।
तथा धर्मो धारयत्यधर्मरूपं विहासंस्त सम्पश्यन्ति । आज यही स्थिति है - धर्म अधर्म के रूप में और अधर्म धर्म के रूप में दिखाई पड़ रहा है। इस अपसंस्कृति से मुक्ति पाने का एक ही उपाय है - अपनी महान् परंपरा और संस्कृति के आदशों का अनुसरण करना। राग, द्वेष, काम, क्रोध मनुष्य का नाश करते हैं- उसका ज्ञान अपहृत होता है और चारित्र भ्रष्ट एवं तत्त्वों में रुचि का अभाव दृग्गोचर होता है। “तच्चरूई सम्मत्तं, तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं, चारित्तपरिहारो पयंपियं जिणवरिंदेहि"और यह तत्त्वबोध और कर्म बंध करने वाली क्रियाओं का परित्याग, ज्ञानी, विद्वान् व चारित्र्य के तप:पूत आदर्श के शासन में रहने से ही संभव है । जो उनके उपदेश पर नहीं चलता, वह अपना ही शत्रु होता है। आचार्य श्री कहा | करते थे कि मनुष्य की जिजीविषा बहुत बडी है - पर वह विजिगीषा में न बदल जाये - यही आवश्यक है। उसका उपयोग होना चाहिए। आज भी सभी चिन्तक यही स्वीकार करते हैं कि मानवीय प्रकृति का उदारीकरण अनिवार्य है। आज मनुष्य की विच्छत्ति, विच्युति और उसका अजनबी पन (आउट साइडेडनेस) प्रेम के अभाव के कारण हैं - उसकी मानसिक रुग्णता और हताशा भविष्य की आस्था और उज्ज्वलता के प्रति निराशा का परिणाम और अनास्था