Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
View full book text
________________
(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
५७७ कारण सारे आगमों के अध्ययन का अवसर मिल गया। मुझे जो भी प्राप्त हुआ इसी सामायिक के नियम से प्राप्त हुआ। कभी कोई कष्ट आया तो सामायिक से प्राप्त ज्ञान उसे समभाव से सहने में इतना सहायक हुआ कि उसका बयान शब्दों में नहीं किया जा सकता। जो सुख-दुःख प्राप्त हैं मेरे अपने कर्मों का फल है। दूसरा कोई इसके लिए जिम्मेदार नहीं है, अत: किसी के प्रति द्वेष का भाव, उपालम्भ का भाव कभी आता ही नहीं। मन इतना शांत-प्रशांत | रहता है कि क्या बताएँ। यह सब उस महापुरुष की देन है जिसने समभाव की साधना को जीवन में अवतीर्ण किया व उसकी साधना हेतु प्रेरित किया।
अजमेर के बाद लम्बे समय तक गुरुदेव के दर्शन नहीं कर पाया। जब आचार्य श्री का रायचूर चातुर्मास था, तब पुन: दर्शन किए। तीन दिन सेवा का यह लाभ हुआ कि में पूज्य गुरुदेव से पूरी तरह जुड़ गया।
१९७४ का चातुर्मास गुरुदेव का सवाईमाधोपुर हुआ। मैं तब भरतपुर सेशन जज था। सवाई माधोपुर तब भरतपुर जजशिप का भाग था। तब वहाँ मात्र दो मुंसिफ थे। सी. जे. एम. कोर्ट व बाद में एडी.आई. केम्प कोर्ट में हर १५ दिन व तीन हफ्ते में एक बार सवाई माधोपुर जाकर पूज्य गुरुदेव के सपत्नीक दर्शन करता, प्रवचन का लाभ लेता व कोई मौका होता तो स्वयं भी व्याख्यान में भाषण दे देता। खूब लाभ मिला वहाँ सेवा करने का। पोरवाल क्षेत्र का भाग्योदय था। खूब धर्मध्यान हुआ। खूब नये लोग रत्नवंश से जुड़े । बड़ा सरल सादा क्षेत्र है। भौतिक समृद्धि इतनी नहीं थी , पर आध्यात्मिकता व सादगी की भावना से ओत-प्रोत क्षेत्र था। गुरुदेव ने इस क्षेत्र का पूरे तनमन से पोषण किया व आज भी क्षेत्र उनका उपकृत है। वहाँ गुरुदेव ने ऐसा अलख जगाया कि अनेकों | स्वाध्यायी निर्मित कर दिए, जो आज भी भारत के कोने-कोने में अपनी स्वाध्याय सेवाएं प्रदान कर विभिन्न क्षेत्रों में धर्म-जागृति लाकर समाज-सेवा का लाभ उठा रहे हैं।
सवाईमाधोपुर के बाद जयपुर, अजमेर, किशनगढ, जोधपुर आदि में सेवा का लाभ मिलता रहा। सन् १९८२ में गुरुदेव दक्षिण से पधार रहे थे। होली चातुर्मास 'आवर' में था। एक छोटा सा गाँव जहाँ नहाना व निपटना सब नदी पर ही होता था, बहुत शुद्ध सात्त्विक वातावरण था। तीन दिन आवर में सेवा की। उसके बाद करीब-करीब प्रतिदिन रास्ते की सेवा का लाभ लिया। गुरुदेव कोटा पधारे। कोटा में गुरुदेव को मेरे बंगले पर विराजने के भाव थे। कोटा में आई. एस. कावडिया कमिश्नर थे, तब उन्होंने फरमाया कि मेरी इच्छा है कि गुरुदेव मुझे ठहरने का लाभ दें। आप मेरी सिफारिश करें। मैं क्या कहता एक बड़ा अफसर नया जुड़ रहा था। गुरुदेव के करीब आना चाहता | था। उत्साह भी था तो मैंने सब कुछ सोचकर गुरुदेव से अर्ज किया - गुरुदेव कमिश्नर साहब की बड़ी उत्कट इच्छा है कि आप उनके यहाँ ठहरें । मैं तो लाभ से वंचित रहूँगा, परन्तु उचित रहेगा कि उनकी भावनाएं आहत न हों। हम तो आपके हैं ही, वे भी जुड़ें तो कितना अच्छा हो। गुरुदेव मुस्कराए, फिर बोले - जैसी तेरी इच्छा। मैंने फिर कावड़िया साहब से कहा- “आप पधारकर रास्ते में ठहरने हेतु विधिवत् निवेदन करें।” वे मेरे साथ चले व स्वीकृति प्राप्त की। दो या तीन दिन गुरुदेव का विराजना हुआ। बड़े अच्छे कार्यक्रम हुए। सभी अफसर धर्म सभाओं में शरीक हुए। कइयों ने नियम लिये। जयपुर वाले श्रावकों ने तब सेवा का बड़ा लाभ लिया। महावीर जयन्ती का कार्यक्रम कोटा में ही हुआ।
___ मुझे जैसा याद पड़ता है सुशीला कंवर जी म.सा. आदि सतियाँ तब बून्दी विराज रही थीं। गुरुदेव ने उन्हें दर्शन के लिए फरमाया। मुझसे कहा - सतियों को ठहराने का लाभ तुझे मिल जायेगा। मेरी धर्मपत्नी श्रीमती रतन चौपड़ा तब जोधपुर थी। वह कतिपय घरेलू कारणों से कोटा नहीं आ पा रही थी। मैं अकेला था। जयपुर के प्रसिद्ध