Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नामैव ते वसतु शं हृदयेऽस्मदीये
. प्रो. कल्याण मल लाढा कुछ मनीषी ऐसे विराट् मेधा, प्रज्ञा व दिव्य व्यक्तित्व की तेजस्विता से पूर्ण होते हैं, जिन्हें शब्दों में रूपायित करना असंभव है, वे शब्दातीत होते हैं- अथाह सागर की भांति जिसकी गहराई को नहीं मापा जा सकता। पूज्य हस्तीमलजी महाराज साहब ऐसे ही प्रज्ञावान, दिव्य व अलौकिक सद्गुरु थे। जब कभी उन पर सोचता हूँ, जब कभी | जीवन के किसी एकाकी क्षण में भावनाएं अतीत में लौटती हैं, तब मन, प्राण और तन भाव-विभोर होकर उन्हें अपनी || अशेष श्रद्धा और प्रणति देते हैं। अंग्रेजी के महान् आलोचक मेथ्यू आर्ननाल्ड की एक कविता सहज स्मृति में आती ||
है
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प्रश्नों से सब बंधे, मुक्त तो केवल तुम हो। हम प्रश्नों पर प्रश्न करें, तुम मौन विहँसते । परे ज्ञान से तुम उस गिरि सम सहज उभरते जिसका गौरव गान लगा नक्षत्रों को। अपने अडिग पदों की गुरुता से लहरों को करते हो तुम विवश, श्रेष्ठतम स्वर्ग बनाते किन्तु भटकती मानवता को धीर बंधाते
समतल पर ला भाव-भूमि की सीमाओं को (अनुवादक-भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज) वे यही हैं - दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उच्चतम पावनता के सर्वोच्च शिखर पर देदीप्यमान हैं- जिनके लिये भगवान् महावीर की यह गाथा ही सटीक ठहरती है
सवीरिए परायिणइ अवीरिए पराइज्जइ। जो वीर्यवान है, जिसमें अशेष उत्साह है - साहस, ओज, पराक्रम और पुरुषार्थ का अक्षय स्रोत है - जिसके अन्त:करण में शिव-संकल्प सदैव विद्यमान रहते हैं, वही संसार के दुष्कर पथ को पार कर विश्व में आलोक स्तम्भ | बन जाता है। आचार्य हस्ती ऐसे ही आलोक स्तंभ थे। दर्शन, ज्ञान और चारित्र की सर्वोत्कृष्टता के श्रमण । 'षट्त्रिंशद्गुणसम्पन्न: परमो गुरुः।' सम्भवत: द्वादशानुप्रेक्षा (कुन्दकुन्द) में धर्म के दस लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं
उत्तम खम - मद्दवज्जव - सच्चं-सउच्चं संजमं चेव।
तवचागमकिंचण्हं बम्हं इदि दसविहं होदि । उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम | आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य - ये ही धर्म के दस लक्षण हैं। आचार्यप्रवर इन सभी उत्तम लक्षणों के मूर्त रूप थे।
गुरु व आचार्य की दृष्टि ही शिष्य के सारे संशयों विकल्पों का और संदेहों का निवारण करती है। भारतीय संस्कृति में इसी से गुरु और गोविन्द की तुलना में गुरु को ही श्रेष्ठ गिना है, क्योंकि गुरु ही आत्म-संधान का मार्ग प्रशस्त करता है - वही ज्ञानांजन शलाका से अज्ञान की तमिस्रा दूर कर ज्योति विकीर्ण करता है। आद्य शंकराचार्य ने 'विवेक चूडामणि' में गुरु की महत्ता प्रतिपादित करते हुये कहा है कि गुरु का व्यक्तित्व सुप्त चेतना को ऊर्ध्वमुखी