Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
५५५ जन-समूह के साथ शिष्य मण्डली सहित चातुर्मास हेतु सुराना भवन पधारे। दूसरे दिन पाली में पर्याप्त वर्षा हुई। सन् १९९० का पाली का यह ऐतिहासिक चातुर्मास स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाये तो भी कम है। भले ही सम्प्रदाय के घरों की संख्या कम थी, परन्तु उत्साह देखते ही बनता था। दक्षिण भारत से लौटने के पश्चात् यह पहला अवसर था कि आचार्य भगवन्त प्रतिदिन सुराना भवन के बाहर स्थित प्रवचन हाल में पधारते थे। कभी स्वयं प्रवचन फरमाते और कभी सतियों को प्रवचन देने का कहते । किन्तु प्रतिदिन आधा-पौन घण्टे अवश्य विराजते।
वकील हुक्मीचन्द जी आचार्य भगवन्त के दर्शनार्थ पधारे। वे जब मंगलपाठ लेने के लिये गए तो आचार्य भगवन्त ने कहा कि अभी अवसर नहीं है, मैं भी वहीं पर था। मुझ से कहा - "लाला ! ध्यान रखना, यह स्थान साताकारी है, बिना आरम्भ - समारम्भ का है। " सुराणा मार्केट में स्थित यह भवन आज सामायिक स्वाध्याय सदन के रूप में धर्माराधना का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है।
मेरे जीवन की क्या-क्या बातें लिखें, मैं उग्र स्वभावी था। फिल्म देखने की भी मेरी आदत थी, मैं कोई फिल्म देखे बिना नहीं रहता था। इस प्रकार मुझ में कई अवगुण थे, किन्तु आचार्य भगवन्त के प्रति मैं पूर्णत: समर्पित था। संवत् २०४७ में सोचा कि भगवन्त का चातुर्मास आ रहा है, यह पिक्चर देखने का कार्यक्रम कैसे पूर्ण होगा, क्यों न इसे पहले ही छोड़ दिया जाये। उस समय मैं जर्दे का पान भी खाता था। मैंने सोचा चातुर्मास में तो इसे छोड़ना ही पड़ेगा। अत: पहले ही क्यों न छोड़ दिया जाए। किन्तु आचार्य भगवन्त के प्रति श्रद्धा का यह प्रभाव रहा कि विगत ९ वर्षों में मैंने शायद ही एक या दो फिल्म देखी होगी, पान भी सम्भवतया पांच-सात बार खाने का प्रसङ्ग बना होगा। इस प्रकार मेरी कई बुरी आदतें छूट गई।
आज मुझे किसी प्रकार का शौक नहीं रहा, न गोठ-घूघरी, न सिनेमा और न टी.वी. का। ९ वर्षों में एक ही लगन में लगा हुआ हूँ। आत्म सुधार और संघ-सेवा ही मेरा लक्ष्य बन गया है। आचार्य भगवन्त फरमाया करते थे - 'घर सुधरा सब सुधरा'। इसी बात को पकड़कर मैंने समाज-सेवा और संघ-सेवा का बीड़ा उठाया है, जो निरन्तर सफलता की ओर बढ़ रहा है।
पाली चातुर्मास के पूर्व आचार्य भगवन्त ने मुझसे कहा - “चातुर्मास कराने का मानस तूने पक्का बना लिया है, किन्तु छुट्टी कितनी ली?" मैंने कहा - "भगवन् फिलहाल १ वर्ष ।” मैंने परिवार से १ वर्ष के लिये स्वीकृति ले भी ली। आचार्य भगवन्त के पावन चरणों में सेवा का प्रसङ्ग बना रहा, यह मेरा सौभाग्य था। पाली का यह चातुर्मास होने के पूर्व पाली के कई श्रावक मेरी मजाक उड़ाते कि केवल २०-२५ घर हैं, इतना बड़ा प्रवचन हॉल बनाया, उसमें किसे बिठायेंगे, मासखमण आदि तपस्या करने वाले भी रत्नवंश में नही हैं, खर्चे की पानड़ी करने में भी पसीना आयेगा। परन्तु सब कुछ सहज ही हो गया। पाण्डाल चारों माह भरा रहा। पर्युषण में लोग खड़े रहे। मासखमण आदि तपस्याओं की झड़ी लगी। पानड़ी में उम्मीद से अधिक राशि एकत्रित हुई। इस चातुर्मास में श्री लाभचन्द्र जी ने ४० x ६० के १८ प्लाट देने की भावना व्यक्त करते हुये कहा, इन पर बाउण्डरी खिंचाओं तो संघ को दे दूँ। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि आप आज दो तो कल बाउण्डरी खिंचाएं। यह कार्य सम्पन्न भी हुआ और | आज उस स्थान पर श्री जैन रत्न छात्रावास बनकर तैयार हो गया। इसमें अब छात्र भी रह रहे हैं।
आचार्य भगवन्त का जब भी स्मरण करता हूँ, मन प्रमुदित हो उठता है , जीवन में आत्म-विश्वास का अनुभव होता है तथा संघ-सेवा में सतत लगे रहने की अन्त:प्रेरणा मिलती है।
७, गाँधी कटला, पाली मारवाड़ (राज.)
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