Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रज्ञापुरुष को प्रणाम
. डॉ. नरेन्द्र भानावत आचार्य श्री हस्ती एक व्यक्ति नहीं, एक संस्था नहीं, वरन सम्पूर्ण युग थे। आचार्य श्री की सबसे बड़ी विशेषता जो मुझे देखने को मिली, वह थी उनकी गहरी सूक्ष्म दृष्टि, व्यक्ति की पात्रता की पकड़ और उसकी योग्यता व सामर्थ्य के अनुसार कार्य करने की प्रदत्त प्रेरणा। जो भी उनके संपर्क में आता, वह ऐसा अनुभव करता कि जैसे आचार्य श्री उसके अपने हैं, उसकी क्षमता को पहचानते हैं। वे धर्म को किसी पर लादते नहीं थे, व्यक्ति की पात्रता के अनुसार उसे ऐसी प्रेरणा देते कि वह धर्म को जीवन में उतारने के लिए तत्पर हो जाता, उस पथ पर चल पड़ता । यही कारण है कि अनपढ़ से लेकर बड़े-बड़े विद्वान्-पण्डित, सामान्य जन से लेकर बड़े-बड़े श्रीमन्त उनके भक्त थे। उनकी प्रवचन-सभा में सभी जाति और वर्ण के लोग आते थे । वे सबको समान स्नेह और आशीर्वाद देते थे । आचार्य श्री के प्रेरणादायी प्रभावक व्यक्तित्व का ही परिणाम है कि धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक और सेवा-क्षेत्रों में विभिन्न स्तरों के सैकड़ों कार्यकर्ता और समाजसेवी लगे हुए हैं। प्राचीन साहित्य के संरक्षण और संग्रह की प्रेरणा पाकर स्व. श्री सोहनमलजी कोठारी इस कार्य में जुट गये थे। वे अपनी धुन के पक्के थे। कई लोगों को उन्होंने विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार से जोड़ा । मुझे भी आचार्य श्री की प्रेरणा और श्री कोठारीजी के आग्रह से ज्ञान-भण्डार में संगृहीत हस्तलिखित ग्रंथों के सूचीकरण के कार्य से जुड़ने का अवसर मिला। हस्तलिखित ग्रंथ-संग्रह के साथ-साथ भंडार में विभिन्न धर्मों के मूल ग्रंथ भी संकलित किये गये और इसे शोध प्रतिष्ठान के रूप में विकसित करने का प्रयत्न रहा।
भारतीय साहित्य के प्रणयन, संरक्षण एवं संवर्द्धन में जैन साहित्यकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। | मध्ययुगीन जनपदीय भाषाओं के विविध रूपों और काव्य-शैलियों की सुरक्षा में जैन साहित्यकारों की उल्लेखनीय
सेवाएँ रही हैं। भारतीय जन-जीवन के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक इतिहास-लेखन में जैन स्रोत बड़े महत्त्वपूर्ण, विश्वस्त और प्रामाणिक हैं। जैन साहित्य विशेषकर स्थानकवासी परम्परा से सम्बंधित जैन सामग्री जीर्ण-शीर्ण अवस्था में, उपाश्रयों, स्थानकों और निजी आलमारियों में बन्द पड़ी थी । उसकी प्राय: उपेक्षा थी। आचार्य श्री की भारतीय साहित्य और संस्कृति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन यह थी कि उन्होंने इधर-उधर बिखरे पड़े हस्तलिखित ग्रंथों, कलात्मक चित्रों/नक्शों को ज्ञान भण्डारों मे संगृहीत करने की प्रेरणा दी और उनके अध्ययन और अनुसंधान के लिए अनुकूल वातावरण बनाया। जयपुर आने के बाद मैं आचार्य श्री की प्रेरणा से ही सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल और 'जिनवाणी' के सम्पादन जैसी प्रवृत्तियों से जुड़ा।
आचार्य श्री परम्परा का निर्वाह करते हुए भी आधुनिक भाव-बोध से सम्पक्त थे । वे समाज की नब्ज को पहचानने में दक्ष थे। उन्होंने देखा कि धर्म को लोग रूढ़ि रूप में पालते अवश्य हैं, पर इससे उनका जीवन बदलता नहीं। सच्चा धर्म तो वह है जो तुरन्त अपना असर दिखाये। उनका चिन्तन था कि ज्ञानरहित क्रिया भार है और क्रिया रहित ज्ञान शुष्क है। ज्ञान और क्रिया के संतुलित समन्वय से ही मुक्ति का पथ प्रशस्त होता है और राष्ट्र का प्रगति-रथ आगे बढ़ता है। उसी से मानव जीवन सार्थक बनता है। अत: उन्होंने सामायिक के साथ स्वाध्याय को जोड़ा और स्वाध्याय के साथ सामायिक को । धर्माराधना के इन दोनों अंगों को नई शक्ति दी, नई रोशनी दी, नई