Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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उच्च कोटि के सिद्ध पुरुष
• श्री गुमानमल चोरड़िया परम पूज्य, चारित्र-चूड़ामणि, इतिहास मार्तण्ड सामायिक-स्वाध्याय के प्रबल प्रेरक, अप्रमत्त योगीराज, अखण्ड बाल ब्रह्मचारी, जिन नहीं पर जिन सरीखे, आचार्य प्रवर १००८ श्री हस्तीमलजी म.सा. लघुवय में ही प्रव्रजित हो गये थे। आपमें विचक्षणता एवं होनहारिता सहज ही परिलक्षित होती थी, अत: २० वर्ष की अवस्था में ही आपको आचार्य पद से सुशोभित किया गया। ६१ वर्ष तक आप आचार्य पद पर विराजे । इतने लम्बे समय तक आचार्य पद से अलंकृत होने वाले आप ही एक आचार्य थे।
वृहद् अजमेर साधु सम्मेलन में आप श्री का एवं ज्योतिर्धर क्रान्तिकारी आचार्य श्री जवाहरलालजी म.सा. का भी विशेष सम्पर्क रहा। आचार्य श्री ने आपकी प्रतिभा को परखा। सम्मेलन के ३ वर्ष पश्चात् आप दोनों आचार्य जेठाना विराज रहे थे, तब आचार्य श्री जवाहर गुजरात के लिए विहार कर रहे थे । आचार्य श्री जवाहर ने विहार करते वक्त फरमाया कि आप मुझे मांगलिक सुनाइये । आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. हतप्रभ हो गये और कहा कि आप इतने बड़े आचार्य, मैं आपको क्या मांगलिक श्रवण कराऊँ? पर 'आचार्य को आचार्य मांगलिक नहीं सुनावेगा तो कौन सुनायेगा?' आचार्य श्री जवाहर के स्नेह एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार के आगे आपको मांगलिक श्रवण करवानी पड़ी।
आचार्य श्री में एक विशेष गुण अप्रमत्तता का था। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक आप एक क्षण भी प्रमाद नहीं करते थे। आप दैनन्दिनी चर्या के अलावा अपने लेखन के कार्य में या अध्ययन के कार्य में हमेशा व्यस्त रहते थे। कोई भी श्रावक-श्राविका दर्शन करने आते थे तब आप उनसे उनकी साधना के विषय में जानकारी कर, कुछ अधिक प्रेरणा दे कर वापिस अपने लेखन या स्वाध्याय के कार्य में व्यस्त हो जाते थे। व्यर्थ की सांसारिक बातों का आपके संयमी-जीवन में कतई स्थान नहीं था।
जैन आगमों के आप श्री प्रकाण्ड पंडित थे, गहन स्वाध्याय व चिन्तन आपके जीवन का मूल लक्ष्य रहा। आपके मन में एक भावना थी कि सन्त-सन्तियों को अध्ययन कराने के लिए योग्य विद्वानों की बहुत अल्पता है, अत: एक संस्था ऐसी होनी चाहिये कि जहाँ छात्र अपने व्यावहारिक शिक्षण को प्राप्त करते रहने के साथ-साथ धार्मिक विषयों में भी पारंगत हो सकें, अत: आपकी प्रेरणा से प्रेरित होकर एक सिद्धान्त शाला की स्थापना हुई एवं योग्य | समर्पित गृहपति श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा की सेवाओं से प्राकृत एवं संस्कृत में अच्छे विद्वान् तैयार हो रहे हैं।
आप यह महसूस करते थे कि सन्त-सतियों की संख्या सीमित है, सब जगह चातुर्मास हो नहीं सकते, अत: कम से कम पर्युषण पर्वाधिराज में कुछ स्वाध्यायी बन्धु, जिन क्षेत्रों में चातुर्मास सन्त-सतियों के नहीं हों, वहाँ जाकर | श्रावक-श्राविकाओं में ज्ञानाराधना, धर्माराधना करवाने में सहयोगी बनें। उस समय केवल स्वामी श्री पन्नालालजी म.सा. की प्रेरणा से विजयनगर में स्वाध्यायी बन्धुओं की एक संस्था थी जो देश में सब जगह स्वाध्यायियों को भेजने में सक्षम नहीं थी, अत: आपकी प्रेरणा से 'सम्यक् ज्ञान प्रचारक मण्डल' के अन्तर्गत 'स्वाध्याय संघ' की स्थापना की गई। इसके माध्यम से योग्य शिक्षण के लिए समय-समय पर जगह-जगह शिविर आयोजित होते रहते हैं। आपने स्वयं ने स्वाध्यायी बनने के लिये युवकों को प्रेरित किया, फलस्वरूप अच्छी संख्या में अच्छे स्तर के स्वाध्यायी सर्वत्र