Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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सेवाएं प्रदान कर रहे हैं ।
आप हमेशा मुमुक्षु जीवों को सामायिक और स्वाध्याय की प्रबल प्रेरणा दिया करते थे । तमिलनाडु, कर्नाटक, | मध्यप्रदेश, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान जो-जो क्षेत्र आपकी चरण-रज से उपकृत हुए, वहाँ सर्वत्र आपकी सामायिक-स्वाध्याय की प्रेरणा से काफी भव्य जीव लाभान्वित हुये हैं। आपने अपने जीवन का काफी समय | मौन साधना में व्यतीत किया है। पूर्व में सोमवार को, बाद में गुरुवार को व्याख्यान के अलावा मौन एवं प्रतिमास कृष्णा पक्ष की दशमी को पूर्ण मौन एवं एकाशन की साधना करते थे ।
सन् १९५२ में सादड़ी-सम्मेलन में जब श्रमण संघ का निर्माण हुआ और इसे संजोया गया तो इसमें आपका | पूर्णतया मार्ग-दर्शन एवं सहयोग था । उपाचार्य श्री गणेशीलालजी म.सा. ने जब श्रमण संघ से पृथक् होने की घोषणा | की तब आप उपाचार्य श्री को श्रमण संघ में उपाचार्य पद पर रहने के लिये विशेष आग्रह करने उदयपुर पधारे थे । उपाचार्य श्री ने आपकी बातों को विशेष महत्त्व देते हुये भी असमर्थता प्रकट की एवं आप से कहा कि “श्री | हस्तीमलजी म.सा. ! आपने मेरा साथ नहीं दिया, पर एक दिन आपको भी श्रमण संघ से पृथक् होना पड़ेगा, आप | इसमें रह नहीं सकेंगे।” महापुरुषों के मुख से उच्चरित स्वर कभी मिथ्या नहीं हो सकते, एतद्स्वरूप कालान्तर में आप श्री ने भी जयपुर के उपनगर आदर्शनगर में पृथक्त्व की घोषणा की ।
आप श्री का एवं आचार्य श्री नानालालजी म.सा. का भोपालगढ़ में मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ, उस प्रसंग | वार्ता हेतु जब आपकी सेवा में श्रावक उपस्थित हुये तब आपने एक ही जिज्ञासा प्रकट की कि भाई ! आचार्य श्री | अन्त:करण से चाहते हैं या नहीं ? जब आचार्य श्री नानालालजी म.सा. से पुछाकर आप से पुनः निवेदन किया कि | आचार्य श्री की अन्तरमन की भावना है, तब आप प्रमुदित हुए एवं आगे का संभावित कार्यक्रम निश्चित होता गया तथा अत्यन्त प्रेम के वातावरण में मैत्री-संबंध स्थापित हुआ जो आज भी यथावत् है ।
आप श्री, जब भी कोई श्रावक-श्राविका सेवा में उपस्थित होते तो उन्हें प्रेरणा देने के अलावा अन्य साधकों के | लिये भी साधना के विषय में जानकारी कर प्रेरित करने के लिये फरमाया करते थे । मुमुक्षु जीवों के लिए सहज रूप में आपके मुखारविन्द से जो शब्द उच्चरित हो जाते, वे हमेशा सत्य साबित हुए हैं।
आप उच्च कोटि के सिद्ध पुरुष एवं एक महान् सन्त थे । आगत व्यक्ति क्या जिज्ञासा लेकर आया है, आपको सहज ही भासित हो जाता था। आप शेषकाल में लाल भवन में विराज रहे थे । प्रतिदिन प्रवचन की पीयूषधारा प्रवाहित होती थी। विधान सभा के तत्कालीन स्पीकर निरंजननाथजी आचार्य पधारे एवं व्याख्यान सुना, प्रभावित हुये, पुन: दूसरे दिन प्रवचन - सभा में पधारे। आचार्य जी अपने मन में जो जिज्ञासाएँ लेकर पधारे थे, | उन सबका आपने प्रवचन में समाधान कर दिया। प्रवचन के पश्चात् आचार्यजी ने आचार्यश्री से अर्ज किया - जो-जो जिज्ञासाएँ मेरे मन में थीं, उन सबका बिना पूछे ही आपने समाधान कर दिया । निरंजननाथजी आचार्य श्री से अति प्रभावित हुए। जीवनकाल में आप श्री ने यद्यपि कोई लम्बी तपस्या नहीं की, पर जीवन के संध्याकाल में तेले की तपस्या कर, पारणे में संथारा ग्रहण कर १० दिन तिविहारी संथारा कर अंतिम समय सवा चार घण्टे का पूर्ण चौविहारी संथारा कर, एक कीर्तिमान स्थापित किया ।
- पूर्व अध्यक्ष, श्री अ. भा. साधुमार्गी जैन संघ, चोरड़िया भवन, सोंथली वालों का रास्ता, जयपुर