Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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उच्चकोटि के संयमनिष्ठ निर्भीक योगी
. श्री टीकमचन्द हीरावत मेरी समझ में नहीं आता कि उस उच्चकोटि के महान् अध्यात्मयोगी के जीवन को किस छोर से देखें । मिश्री जिस प्रकार चहुँ ओर से मधुर होती है उसी प्रकार पूज्य गुरुदेव का जीवन सम्पूर्ण रूप से करुणा, प्रमोद, आत्मीयता आदि दिव्य गुणों से परिपूर्ण था।
हमारा परिवार गुरुचरणों में सुदीर्घ काल से श्रद्धानत है। मुझे स्मरण है कि पिताजी एवं परिवार के अन्य सदस्य सन्त-समागम में सदैव तत्पर रहते थे। आचार्य श्री की प्रेरणा से पितृवर नियमित रूप से सामायिक करते
__मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे अपने जीवन में कुछ काल आचार्यप्रवर की सेवा में रहने का अवसर | मिला । आज भी वह दिन मेरे स्मृति-पटल पर अंकित है, जब मैं अमेरिका से इन्दौर आचार्य भगवन्त के दर्शनों हेतु उपस्थित हुआ। रात्रि के ९ बजे का समय था। पूर्णिमा के ध्यान के अनन्तर जब आपने चक्षु उन्मीलन किया, मैं आपके सान्निध्य में वन्दन कर बैठ गया। आपने पूछा - “कहाँ से आ रहे हो ?” मैंने कहा - "भगवन् ! अमेरिका से आ रहा हूँ।” गुरुदेव ने फरमाया - “क्या तुम बताओगे कि तुम्हारे पास औरंगजेब, अकबर या अन्य राजा-महाराजाओं से अधिक पैसा हो जाएगा? यदि हो भी गया तो क्या फर्क पड़ेगा? क्या उनको आज कोई पूछने वाला है ? तुम सोचो, तुम्हारी क्या स्थिति होगी?" आपके शब्दों में न जाने क्या आकर्षण था, मैं तमाम व्यापार का कार्य बन्द कर भारत आ गया। गुरुदेव ने मुझे आध्यात्मिक विकास, जीवन-निर्माण व त्याग की महती प्रेरणा दी, पर यह मेरी कमजोरी रही कि जीवन का जैसा विकास करना चाहिये था, वैसा नहीं कर सका।
दक्षिण-प्रवास में ही एक बार एक छोटे से गांव में विचरण करते हुए आपने जर्जर वस्त्रों में लिपटी वृद्धा को | देखा, तो द्रवित हो उठे। आगे चलकर मुझसे बोले - “उस वृद्धा को देखो।” आचार्यप्रवर के इस वाक्य में करुणा | बरस रही थी। मितभाषी आचार्यप्रवर का इतना कहना ही मेरे लिए मार्गदर्शक बन गया।
विहारोपरान्त आप एक ग्राम के विद्यालय भवन में विराज रहे थे । यह सम्भावना जानकर कि आप दिनभर विराजेंगे मैंने दयाव्रत के प्रत्याख्यान ले लिये। किन्तु निर्मोही साधकों का कब विहार हो जाये, यह वे ही जानते हैं। आचार्य श्री ने अपराह्न ४ बजे वहाँ से विहार कर दिया। स्वाभाविक था मैं भी दयावत में होने से उनके साथ नंगे पांव चला। ग्रीष्मातप के कारण धरती आग उगल रही थी। आदत नहीं होने से मेरे पैरों में मोटे मोटे छाले हो गए। गन्तव्य पर पहुँचने के पश्चात् गुरुदेव मुझसे छालों के बारे में दयार्द्र हो पूछने लगे तो आपकी करुणा को देखकर मुझे ऐसा लगा, कि मैं साक्षात् भगवान के सामने खड़ा हूँ।
एक बार किन्हीं श्रमणों ने आचार्य भगवन्त के प्रति अपनी गलतफहमी या अन्य कारण से कटु शब्दों का प्रयोग कर दिया। श्रावक वर्ग का नाराज होना स्वाभाविक था। किन्तु आपने श्रावकों से फरमाया कि आप लोग उनके पास जाकर मधुरता से उनकी नाराजगी दूर करो। ऐसा ही हुआ। भाई सा. नथमल जी हीरावत आदि कतिपय श्रावकों ने जाकर सन्तों को निवेदन किया तो उन्हें अपने किए पर पश्चात्ताप हुआ। इससे परस्पर की कटुता का वातावरण एवं गलतफहमी दोनों दूर हो गए।