Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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निरतिचार साध्वाचार के सजग प्रहरी
. श्री प्रसन्न चन्द बाफना मुझे मेरे बाल्यकाल की ४० वर्ष पूर्व की घटनाओं का सहज स्मरण हो आता है। भोपालगढ़ में हम छोटे-छोटे बालकों का समूह लम्बी दूरी तक गुरुदेव के पधारने की खुशी में छलांगें लगाता हुआ सामने जाता था। सारे गांव में एक उत्सव-सा माहौल होता था , जो देखते ही बनता था। छोटे-छोटे बालकों से गुरुदेव का विशेष लगाव था। गुरुदेव का विश्वास था कि इन बालकों को अभी से धर्म से जोड़ा गया, तो कुछ कर-गुजर सकते हैं। अपना जीवन तो बनायेंगे ही साथ ही संघ व समाज की सेवा के संस्कार का भी इनमें बीजारोपण हो सकेगा। मेरा भी सौभाग्य रहा कि १२-१३ वर्ष की उम्र से ही गुरुदेव का स्नेह प्राप्त कर यत्किंचित् संस्कार प्राप्त कर सका ।
पाली के अन्तिम चातुर्मास में भादवा सुद का प्रसंग है। हमारे दादीसा का दो दिन पहले संथारा सहित स्वर्गगमन हो चुका था। इधर मेरे भतीजे नरेन्द्र के अठाई की तपस्या थी। उसकी गुरुदर्शन की भावना से हम पाली गये। दर्शन-वन्दन के पश्चात् मैंने गुरुदेव के समक्ष दादीसा के संथारा सहित स्वर्ग गमन के समाचार अर्ज किये। गुरुदेव ने तत्काल प्रतिप्रश्न करते हुए पूछा - "संथारा किसने कराया ? श्रद्धान किया अथवा नहीं ?” गुरुदेव यद्यपि उस दिन अस्वस्थ थे, फिर भी उनका चिंतन द्रव्य-क्रिया पर नहीं, भाव-क्रिया पर था। स्पष्ट भासित होता है कि वे औपचारिकताओं में नहीं, आचरण में विश्वास करते थे। ___गुरुदेव पंचमी (जंगल) से लौटने पर पैर के अधोभाग पर अत्यल्प प्रासुकजल की बूंद-बूंद डालकर उसका प्रक्षालन करते थे। एक बार मैंने गुरुचरणो में निवेदन किया - अन्नदाता ! लोग इस संबंध में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं?" गुरुदेव ने फरमाया - “वे ठीक कहते हैं। किन्तु बाल्यकाल से ही जब मैं पढ़ने बैठता था तब से मेरी आदत-सी बन गयी है। मैंने अनुभव किया कि गुरुदेव सत्य के प्रति कितने सहज हैं। उनके रोम-रोम में सत्य का कितना आग्रह है।
इसी प्रसंग के संबंध में एक बार मैंने गुरुचरणों में निवेदन किया “अन्नदाता, आपके पैर-प्रक्षालन के पश्चात् तुच्छ जलराशि जो फर्श पर होती है उसको लेने के लिये लोग तरसते हैं। उससे उनको साता पहुंचती है, ऐसा उनका प्रबल विश्वास है। आप विसर्जित जलराशि को छितरा देते हैं तथा लेने वाले को मना करते हैं, इसका क्या हेतु है?" गुरुदेव ने प्रत्युत्तर में फरमाया, “यह तो अन्ध-विश्वास है। साता उपजने में इस जल का कोई कारण नहीं है। साता-असाता व्यक्ति को अपने कर्मों से मिलती है।” चमत्कारों के पीछे भागने वालों के लिये यह संदेश बोध देने के लिये पर्याप्त है। गुरुदेव के गुण उनके चिन्तन के पर्याय थे। वे चमत्कार पर नहीं, सिद्धान्तों के प्रति दृढ़ आस्थावान थे।
१९८४ के जोधपुर (रेनबो हाउस) चातुर्मास के पश्चात् सरदारपुरा में विराजने के स्थान को लेकर श्रावक ऊहापोह में चल रहे थे। दूर से बात कहते हम श्रावकों की बात का गुरुदेव को अन्दाज लगते ही उन्होंने फरमाया - “हमें रोकने वाला है कौन ? और रोकने वाले से हम रुकने वाले नहीं हैं।” इस वाक्य में एक ओर गुरुदेव का दृढ़ चारित्र-बल एवं आत्म-विश्वास झलक रहा था और दूसरी तरफ यह समूचे समाज पर अधिकार (सब अपने हैं) की | पुष्टि कर रहा था।