Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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| ज्ञानेन्द्र गुरु महाराज के निकट है, सो रियायत ।” मैंने निवेदन किया- “भगवन् आप जो भी आदेश देंगे, वही | स्वीकार्य । ” रात्रि में भी श्री चरणों में सोया था । न जाने कैसे स्वतः मेरे मन में संकल्प उदित हुआ कि कल गुरुदेव से संकल्प लेना है कि भगवन् इस घर में रिश्वत का कोई हिस्सा भी न आवे । प्रातः आपने प्रस्थान पूर्व मुझे | सपत्नीक अपनी इच्छानुसार नियम दिलाया। इसके पश्चात् मैंने संकल्प अर्ज किया। गुरुदेव को अतीव प्रसन्नता हुई, आपने कृपा बरसाते . तीन बार फरमाया " आपने बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा किया। हुए इससे आपकी शोहरत खूब फैलेगी।" कहना न होगा उसके बाद समस्याओं का कभी नहीं सोचा, उस ढंग से समाधान हुआ। सुदामा की भांति कब कैसे समाधान हुआ, वे ही जानें।
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(१२) कृपा-सिन्धु पाली वर्षावास के बाद निमाज पधारने की भावना से सोजत पधारे। होली चातुर्मास वहीं था । संघ कार्यकर्ताओं की बैठक थी, मैं भी वहाँ गया। रात्रि में नव मनोनीत संघाध्यक्ष श्री मोफतराज सा. मुणोत के निर्देशानुसार मैं जोधपुर जाने हेतु मांगलिक लेने पहुंचा। आप पोढे हुए थे । श्रद्धेय श्री हीरामुनि जी (वर्तमान आचार्य प्रवर), मैं, श्री जगदीशमलजी कुम्भट व श्री नौरतन जी मेहता आपके श्री चरणों में बैठ गये। थोड़ी देर बाद आपके | जागने पर हमने मांगलिक माँगी। सहसा गुरुदेव के मुख से निकला - “रुको तो मेरे हृदय की बात कहूँ ।" पर न जाने मेरी बुद्धि ने क्यों जवाब दे दिया व मैंने आग्रहवश कहा कि भगवन् ! संघ के काम से जा रहा हूँ, शीघ्र ही | नौरतनजी व मैं दर्शनार्थ सेवा में आयेंगे, मांगलिक श्रवण कर जोधपुर आने का कार्यक्रम बना लिया । न जाने करुणानिधान क्या फरमाते, यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। मेरे जीवन की भयंकरतम भूलों में से यह एक है । आम्रमंजरियां पक जाती हैं, तो कौए के गले में रोग हो जाता है, मैं भी इसी माफिक उस स्वर्णिम अमिय वर्षा से वंचित रहा ।
चौक प्रवास के एक दिन अपराह्न आपने फरमाया (उस समय श्री (१३) सन् १९९० में ही घोड़ों | नवरतनमल सा डोसी, श्री लखपत चन्द सा भंडारी व श्री गोपाल सा अब्बाणी साथ में थे ।) “युवक संघ मेरी इच्छा | है, मेरी महत्त्वांकाक्षा है।" फिर फरमाया “तुम चारों में जितनी पारिवारिक घनिष्ठता बढ़ेगी, उतनी ही अधिक
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संघ-सेवा कर सकोगे ।
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युवक कैसे संगठित होकर संस्कारवान बनें व संघ की सेवा करें, इस ओर उस समय आपका चिन्तन सतत वेग न आते देख एक बार उपालंभ भी मिला वह गति नहीं आई ( वह गति चलता रहता। मेरी ओर से प्रयासों से पूज्यपाद का आशय साधना - समारोह की स्मृति दिलाने का था) । फिर सिंहपोल में श्रद्धेय गौतममुनिजी म.सा. की उपस्थिति में फरमाया- “मैं तुम्हें युवक संघ का फौज बख्शी मानता हूँ।” फिर फरमाया- “समझे?” मैंने कहा - “ नहीं भगवन् ।” तब फरमाया- “बादशाह के समय के खींवसी भंडारी फौजबख्शी थे व उसका मतलब होता है। कमान्डर इन चीफ" । इस तरह भांति-भांति युवक संघ के संगठन हेतु मुझे प्रेरित किया। युवक संघ जो स्वरूप पाया व उसकी नींव में हम चारों बन्धु जो भी अर्घ्य दे पाये, वह सब उन्हीं कृपा - सिन्धु का ही प्रताप था, हम निमित्त थे, वे हमें श्रेय देना चाहते थे, जो मिल गया।
मात्र
(१४) पूज्यपाद के संथारे के पश्चात् जोधपुर में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन था, घोड़ों के चौक सामायिक स्वाध्याय भवन में जैन समाज की सभी परम्पराओं के श्रावक-श्राविकागण उपस्थित थे । विभिन्न वक्ताओं ने अपने संस्मरण प्रस्तुत करते हुए उन महापुरुष के प्रति श्रद्धा सुमन समर्पित किये। समूचे जैन समाज में अपनी अलग पहचान रखने वाले त्यागमूर्ति विद्वान् साधक सुश्रावक भी जौहरी मल जी पारख (सी.ए) रावटी वालों ने श्रद्धा सुमन