Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं शारीरिक कार्यों में बाधा पड़ती है। उस बाह्य वृद्धि को पट्टी बांधकर या अन्य उपचार के द्वारा रोकना पड़ता है, सीमित करना पड़ता है वैसे ही बढ़ा हुआ परिग्रह भी अच्छे कार्यों में, साधना में बाधक होता है। अतः उस पर नियमन की पट्टी लगानी आवश्यक होती है। आज कुछ लोग नौकर रखकर यह तर्क उपस्थित करते हैं कि हम मजदूर लोगों का पालन करते हैं। ऐसी दहाई देने वाले कहाँ तक सच कहते हैं, यह उनका हृदय जानता है। आज के कारखाने स्वार्थ के लिए चलते हैं या।। लोकपालन के लिए? इसका जवाब तो स्वयं से पूछना चाहिए। वर्षाकाल में बच्चे मिट्टी का घर बनाने में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि खाना-पीना भी भूल जाते हैं और माँ-बाप के पुकारने पर भी ध्यान नहीं देते। यदि कोई राहगीर उनके घर को तोड़ दे, तो वे झगड़ बैठते हैं। वे मिट्टी के घरौंदे में राजमहल जैसे आनंद का अनुभव करते हैं। यद्यपि मिट्टी वाला घर कोई उपादेय नहीं है और सयाने | लोग बच्चे के इस प्रयास पर हंसते हैं, फिर भी वह किसी की परवाह किये बिना कीचड़ में शरीर और वस्त्र खराब करते नहीं झिझकता। ठीक यही स्थिति मंदमति संसारी जीव की है। वह बच्चे के घरौंदे की तरह नाशवान कोठी, बंगला और भवन बनाने में जीवन को मलिन करता रहता है। घरौंदे के समान ये बड़े-बड़े बंगले भी तो बिखर जाने वाले हैं। क्या आज के ये खंडहर, कल के महलों के साक्षी नहीं हैं, जिनके निर्माण में मनुष्य ने अथक श्रम और अर्थ का विनियोग किया था। पक्षी के घोंसले के समान, सरलता से नष्ट होने वाले घर के पीछे मनुष्य रीति, प्रीति और नीति को भूलकर, काम-क्रोध, लोभ के वशीभूत होकर पाप करता है, बहुतों की हानि करता है और परिग्रह की लपेट में फंस जाता
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सर्वथा परिग्रह विरमण (त्याग) और परिग्रह परिमाण, ये इस व्रत के दो रूप हैं। परिग्रह परिमाण व्रत का दूसरा नाम इच्छा परिमाण है। कामना अधिक होगी तो प्राणातिपात और असत्य भी बढ़ेगा। सब अनर्थों का मूल कामना-लालसा है। कामना ही समस्त दुःखों को उत्पन्न करती है। भगवान ने कहा है कि 'कामे कमहि कमियं खु दुक्खं ।' यह छोटा सा सूत्रवाक्य हमारे समक्ष दुःख के विनाश का अमोघ उपाय प्रस्तुत करता है। जो कामनाओं को त्याग देता है वह समस्त दुःखों से छुटकारा पा लेता है। साधारण मनुष्य कामनापूर्ति में ही संलग्न रहता है और उसी में अपने जीवन को खपा देता है। विविध प्रकार की कामनाएँ मानव के मस्तिष्क में उत्पन्न होती हैं और वे उसे नाना प्रकार से नचाती हैं। इस सम्बंध में सबसे बड़ी कठिनाई तो यह है कि कामना का कहीं ओर छोर नहीं दिखाई देता। प्रारम्भ में एक कामना उत्पन्न होती है। उसकी पूर्ति के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है। वह पूरी भी नहीं होने पाती कि अन्य अनेक कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इस प्रकार ज्यों-ज्यों कामनाओं को पूर्ण करने का प्रयास किया जाता है त्यों-त्यों उनकी वृद्धि होती जाती है और तृप्ति कहीं हो ही नहीं पाती, आगम में कहा है
___ 'इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।' जैसे आकाश का कहीं अन्त नहीं वैसे ही इच्छाओं का भी कहीं अन्त नहीं। जहाँ एक इच्छा की पूर्ति में से ही सहस्रों नवीन इच्छाओं का जन्म हो जाता हो वहाँ उनका अन्त किस प्रकार आ सकता है? अपनी परछाई को पकड़ने का प्रयास जैसे सफल नहीं हो सकता, उसी प्रकार कामनाओं की पूर्ति करना भी सम्भव नहीं हो सकता। उससे बढ़ कर अभागा और कौन है जो प्राप्त सुख-सामग्री का सन्तोष के साथ उपभोग न करके तृष्णा के