Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
४९१।। __ आचार्य भगवंत का जीवन कैसा था, आपने देखा है, आप जानते भी हैं। उनमें थकावट का कभी काम नहीं।। वे कितना पुरुषार्थ करते थे ! वे सामायिक-स्वाध्याय के लिये अधिक बल देते थे। दिल्ली वाले आचार्य भगवंत के
श्री चरणों में चातुर्मास की विनती लेकर आये। उनसे कहा-'आप प्रति वर्ष विनती लेकर आते हैं तो क्यों नहीं आप | सामायिक-स्वाध्याय का सिलसिला प्रारम्भ कर अपने पैरों पर खड़े होते हैं?'
आचार्य भगवंत सदा कुछ न कुछ देते ही रहते । जब तक स्वस्थ रहे स्थान-स्थान पर भ्रमण कर ज्ञान दान । दिया और अन्त समय में भी कितनी उदारता, विशालता ! वे परम्परा के आचार्य होकर भी कभी बंधे नहीं रहे। वे || फरमाते-'जिनको जहाँ श्रद्धा हो वहाँ जाओ पर कुछ न कुछ करो जरूर ।'
आचार्य भगवंत की विशालता अनूठी थी। वे चाहे श्रमण संघ में रहे, तब भी वही बात, श्रमण संघ में नहीं रहे तब भी वही बात । श्रमण संघ से बाहर निकले उस समय श्रावकों ने कहा-किसके बलबूते पर अलग हो रहे हो? आचार्य भगवंत ने कहा-'मैं आत्मा के बलबूते पर अलग हो रहा हूँ। मैं अपनी आत्म-शांति और समाधि के । लिये अलग हो रहा हूँ।' उस समय लोग सोचने लगे-'कौन पूछेगा', पर आपने देखा है-आचार्य भगवंत जहां भी । पधारे, सब जगह श्रद्धालु भक्तों से स्थानक सदा भरे रहे। चाहे प्रवचन का समय हो, चाहे विहार का, श्रावक-श्राविकाओं का निरन्तर दर्शन-वंदन के लिये आवागमन बना ही रहा । स्थानक छोटे पड़ने लग गये। उनका। जबरदस्त प्रभाव था कारण कि वे सबके थे, सब उनके थे।
वे महापुरुष गुण-कीर्तन पसन्द ही नहीं करते । वे स्वयं गुणानुवाद के लिए रोक लगा देते थे। मदनगंज में || आचार्य पद दिवस था। उस समय संतों के बोल चुकने के बाद मेरा नम्बर था, लेकिन आचार्य भगवन्त ने उद्बोधन दे | दिया। उसके बाद मुझसे कहा- तुम्हें भगवान ऋषभदेव के लिए बोलना है। मेरे बारे में बोलने की जरूरत नहीं।। कैसे निस्पृही थे वे महापुरुष ! वे प्रशंसा चाहते ही नहीं थे।
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मिन विशेप । प्रशंसा चाहने या कहने से नहीं मिलती। वह तो गुणों के कारण सहज मिलती है। आचार्य भगवन्त नहीं चाहते थे कि लोग इकट्ठे हों पर उनकी पुण्य प्रकृति के कारण लोगों का हर समय आना जाना बना ही रहता था। अजमेर दीक्षा स्वर्ण-जयन्ती के अवसर पर आचार्य श्री का मन नहीं था, पर श्रावकों की इच्छा थी इसलिये वहां दीक्षा स्वर्ण-जयन्ती महोत्सव मनाया गया। वे महापुरुष स्वयं की इच्छा नहीं होते हुए भी किसी का मन भी नहीं तोड़ते थे। उन्होंने त्याग-प्रत्याख्यान की बात रख कर श्रावक समाज के सामने त्याग-तप की रूपरेखा रख दी। उनके पुण्य प्रताप !! से कई बारह व्रतधारी श्रावक बने और व्यसनों का उस समय त्याग काफी लोगों ने किया।
आचार्य भगवन्त ने बचपन से लेकर अन्तिम समय तक हर क्षेत्र में अपना कीर्तिमान स्थापित किया। दस वर्ष || की अवस्था में दीक्षित हुए। बचपन की एक ऐसी अवस्था, जब एक बच्चा अपने कपड़ों को भी अच्छी तरह से नहीं || सम्हाल पाता है, ऐसे समय में उन्होंने पाँच महाव्रतों को अंगीकार किया। अपने जीवन को गुरुओं के चरणों में || समर्पित किया। १५ वर्ष की अवस्था में आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. ने उन्हें तीसरे पद के उत्तराधिकारी के रूप में मनोनीत किया। २० वर्ष की अवस्था में चतुर्विध संघ का भार संभालना, कोई साधारण बात नहीं थी। पूज्य | । महाराज इतने आदरणीय थे कि सारा चतुर्विध संघ उनके एक-एक आदेश का तत्परता के साथ पालन करने के लिये !! तैयार रहता था। वह मानता था कि पूज्य श्री ने कुछ कह दिया वह सही है। सबका यह मानना था कि उन्होंने किया, | । ठीक किया, सोच-विचार करके किया है।
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