Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
५०७ भगवन्त प्रेरणा करते कभी थकते नहीं थे। वे सारणा-वारणा-धारणा करते हमें जागरूक रहने की शिक्षा देते। आचार्य दीप समान होते हैं 'दीवसमा आयरिया', जो स्वयं के जीवन को प्रकाशित करते हुए दूसरों के जीवन को प्रकाशित करते हैं। भगवन्त के जीवन से आज भी प्रेरणा मिलती है। प्रेरणा जिस किसी नाम से मिले वह चाहे सुदर्शन हो, कामदेव हो, अरणक या कुण्डकोलिक हो प्रेरणा आचार से मिलती है। भगवन्त बोलते या नहीं, उनका आचार बोलता था। आचार स्वयं प्रेरणा करता है। संथारे को छोड़कर तेले से बडी तपस्या नहीं की, लेकिन उणोदरी, रस-परित्याग आदि तप करते रहे। उस महापुरुष ने चालीस वर्षों तक दोपहर की भिक्षा ग्रहण नहीं की। तली हुई चीजें, खटाई, आचार पातरे में देखना पसन्द नहीं । कहा है - जिते रसे, जितं सर्वम् - जिसने स्वाद को जीत लिया उसने सब कुछ जीत लिया।
स्वाद पर नियन्त्रण है तो चारों इन्द्रियाँ काबू में रहेंगी। आचार्य भगवन्त ने स्वाद पर विजय मिलायी । उनका सधा हुआ जीवन था। वे घंटों एक आसन से बैठ सकते थे। उनका स्वयं का जीवन निर्दोष था, दूसरों को विनय-वैयावृत्त्य और सेवा के संस्कार देकर आप आगे बढ़ाते।
संघ के प्रति समर्पण और स्वाध्याय के प्रचार-प्रसार के प्रति निरन्तर प्रयास आज भी हमें प्रेरणा देते हैं। वीरपुत्र घेवरचन्दजी महाराज कहते-हस्ती गुरु की क्या पहिचान-सामायिक स्वाध्याय महान् । स्वाध्याय के प्रति भगवन्त की भावना देखिए, अन्त समय तक भगवन्त निरन्तर स्वाध्याय का पान करते रहे।
आपकी ध्यानसाधना उत्कृष्ट थी। मेड़ता में एकान्त में ध्यान करने पधारे एवं कह गए कि इधर कोई नहीं आवे। एक भाई बिना जानकारी के कारण संयोग से उधर चला गया। उसने देखा कि भगवन्त एक पैर पर खड़े ध्यान कर रहे थे।
गुरुदेव ने जानकी नगर, इन्दौर में मुझे ध्यान सिखाना प्रारम्भ किया। कन्हैयालाल जी लोढा सिखा रहे थे। गुरुदेव पाट पर विराजे हुये थे । भगवन्त उनकी ध्यान पद्धति को जानने के लिए पाटे से उतर कर नीचे विराज गये। कैसी महानता ! कैसी सरलता !
सरलता साधुता की कसौटी है - से जहावि अणगारे उज्जुकडे, नियागपडिवन्ने, अमायं कुव्वमाणे ... । | साधक में तीन विशेष बातें चाहिए- सरलता, लक्ष्योन्मुखता और पूर्ण पुरुषार्थ । वहां बेईमानी नहीं, लुकाव छिपाव नहीं । साधक सरल है, लक्ष्य के प्रति सदैव सजग है और माया नहीं है तो वह सच्चा वीर्याचार का पालक है। अपने वीर्य को छुपाना माया है। पुरुषार्थ का गोपन करना भी माया है। ज्योतिष शास्त्रानुसार तीसरा घर पुरुषार्थ का बताया जाता है। भगवन्त की कुण्डली देखकर कहा जा सकता है कि उनका तीसरा घर बलिष्ठ था। उस महापुरुष ने बचपन से पुरुषार्थ किया और अन्त समय तक पुरुषार्थ छोड़ा नहीं। संघ-सेवा में कितना पुरुषार्थ किया। लम्बे विहार का पुरुषार्थ और फिर ध्यान, मौन और स्वाध्याय में पुरुषार्थ ।
भगवन्त ने बचपन से वृद्धावस्था तक कैसा वीर्य फोड़ा। उन्होंने किसी रूप में वीर्य को नहीं छुपाया। सुन्दर पदार्थ सुन्दर नजर आयेगा। मिश्री को कहीं से चखो, मिठास देगी। लड्ड का कहीं से कोर खाएं वह मीठा ही होगा। मति की स्मृति नहीं की जाती और मरण का स्मरण नहीं किया जाता। भगवन्त ने पंचाचार का सम्यक् पालन करके हमको आचार का पाठ पढ़ाया। उनका जीवन हमें युगों युगों तक प्रेरणा देगा। गुणवर्णन व गुणदर्शन के लिये हमारी तैयारी होगी तभी हम उनके जीवन से शिक्षा ग्रहण कर सकेंगे । (१३ मई २००३ के प्रवचन से संकलित)