Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड में कोई भी बात कहने से पूर्व सोचना पड़ता है । इस प्रकार मेरे जीवन में पूर्वापेक्षया काफी सुधार हुआ। मैं युवक संघ के सदस्यों को कहूँ कि आप प्रामाणिक बनो, तो पहले मैं अपने में प्रामाणिकता ढूंढने लगा। इस तरह सहजरूप | से परिवर्तन होने लगा। संघ का दायित्व जब सम्हाला, तब गुरुदेव ने तीन श्लोक कहे थे, जो मुझे आज भी याद हैं
पापान निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं निगृहति गुणान् प्रकटीकरोति । आपद्गतं च न जहाति, ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति तज्ञा: । संस्कृत श्लोक का हार्द मेरी समझ के बाहर था, अत: मैंने निवेदन किया - "भगवन् ! इसका क्या अर्थ है?" आचार्य भगवन्त ने फरमाया - “तत्त्व के ज्ञाता पुरुषों ने सन्मित्र के लक्षण कहे हैं कि सन्मित्र अपने मित्र को पाप कार्यों से हटाता है और हित कार्यों में लगाता है। रहस्य की बातों को छुपाकर रखता है तथा उसके गुणों को उजागर करता है विपत्ति आने पर साथ नहीं छोड़ता, अपितु सहयोग करता है।" गुरुदेव ने फरमाया - "तुम संघ के मित्र हो, मित्र बने रहना।” गुरुदेव ने आगे फरमाया -
गच्छत: स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादत: ।
हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जना : ॥ चलते हुए कहीं पर भी असावधानी या प्रमाद के कारण स्खलना होती ही है । दुर्जन उसे देखकर हँसते हैं तथा सज्जन सहारा देते हैं, उठाते हैं। तीसरा पद्य था -
धन दे तन को राखिए, तन दे रखिए लाज।
धन दे तन दे लाज दे, एक धर्म रे काज ॥ गुरुदेव के वे वचन मुझे आज भी आनन्दानुभूति कराते हैं। संघ-हितैषी संघ के मित्र ही होते हैं। यदि आपसी | | मनमुटाव के कारण संघ को नुकसान होता है तो यह संघ-हितैषिता नहीं है। __मैं पहले थोड़ा थोड़ा आचार्य रजनीश के सम्पर्क में भी था, किन्तु गुरुदेव के सम्पर्क में आने के पश्चात् अन्यत्र कहीं जाने की इच्छा ही नहीं हुई। आचार्य भगवन्त की दृष्टि स्पष्ट थी। एक बार आचार्य रजनीश के लेख को लेकर विचार चल रहा था, तब गुरुदेव ने फरमाया - "जिसकी कथनी करनी में फर्क हो, उसका प्रचार-प्रसार उचित नहीं।” एक बार मैंने गुरुदेव से पूछा - “तपश्चर्या करने वाले क्या काया को कष्ट नहीं देते ?” गुरुदेव ने फरमाया - “तपस्या में कर्म-निर्जरा का लक्ष्य होता है, इसलिये तप करने वाला कष्ट का नहीं, आनन्द का अनुभव करता है। तप का आराधक तो यही अनुभव करता है कि मैं यह शरीर नहीं, वरन् इसमें स्थित आत्मा हूँ , यह मानव देह मोक्ष पाने का साधन है, तपाग्नि से पूर्व संचित कर्मों को जलाकर मैं अपना शुद्ध बुद्ध स्वरूप प्रगट कर सकूँ । इसी भावना से तप करने वाला साधक कभी कष्टानुभव नहीं करता।"
तप के उद्देश्य विषयक गुरुदेव के इस समाधान से मुझे भी तप के प्रति प्रतीति व तपाराधन की इच्छा हुई और भगवन्त की कृपा से मुझे प्रयोगात्मक रूप में यह आनन्द प्राप्त करने का अवसर भी मिला।
गुरुदेव विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। विषम परिस्थितियों में भी निर्णय लेने की गुरुदेव में अद्भुत क्षमता थी। शीतलमुनि जी के प्रकरण में उनका निर्णय संघ-अनुशासन एवं निश्छल साधना-जीवन का पक्षधर था।