Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
बात नहीं सुनी, न उन्होंनें सम्प्रदाय के विषय में ऐसा कुछ कहा, जिसे साम्प्रदायिकता समझा जाय । इतना ही नहीं उनकी ओर से अन्य आचार्यों, संतों से लाभ लेने की प्रेरणा ही मिली ।
एक बार पाली नगर में विराजे थे आचार्य श्री । अपने छोटे पुत्र को गुरु आम्नाय के लिये हमने निवेदन किया। एक बार दो बार, परन्तु आचार्यप्रवर ने मेरे छोटे लड़के को गुरु- आम्नाय की स्वीकृति प्रदान नहीं की । कितनी विराट्ता एवं उदारता थी उनकी दृष्टि में ।
निस्पृह साधक
पूज्यवर इतने बड़े संघ के आचार्य होते हुए भी मूल रूप से निष्काम एवं निस्पृह साधक थे। उनके जीवन के एक नहीं कई प्रसंग इस तथ्य को उजागर करते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग है आज से लगभग ३५ वर्ष पूर्व का । पूज्य आचार्यप्रवर अपने संत समुदाय के साथ मारवाड़ के प्रसिद्ध शहर नागौर में विराजमान थे । आचार्य प्रवर के | सान्निध्य में प्रातः प्रार्थना से लेकर प्रतिक्रमण तक सभी कार्यक्रम नियमित और विधिवत् चलते थे
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आचार्यप्रवर जहाँ भी विराजते, दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती थी। जंगल में भी मंगल हो जाता। मैं भी पूज्य आचार्य श्री के दर्शन एवं प्रवचन श्रवण की अभिलाषा से नागौर पहुँचा । वहाँ विराजित आचार्य देव एवं | सन्तगण के दर्शन कर मेरा मन मुदित हो गया । प्रातःकालीन प्रार्थना में सम्मिलित हुआ । सामूहिक प्रार्थना में | वीतराग परमात्मा के प्रति अपनी श्रद्धा एवं विनय अर्पित कर धन्य हुआ । प्रार्थना - समाप्ति के अन्त में धर्मस्थान जय - जयकार से गूंज उठा। परन्तु यह क्या ? जय-जयकार के प्रकरण को लेकर वहाँ उपस्थित श्रावक वर्ग में विवाद छिड़ गया । वातावरण में गर्मी आ गई।
विवादपूर्ण ‘जय-प्रकरण' की खबर आचार्य श्री के कानों तक भी पहुँची । जानते हैं उन्होंने श्रावक वर्ग के इस विवाद पर क्या निर्णय लिया? उन्होंने फरमाया, 'सबकी जय बोली जाए, पर आप लोग मेरी जय मत बोलिए ।' | वस्तुतः उन्हें समाज में शांति और सौहार्द प्रिय था। वे कभी अशांति का वातावरण नहीं देख सकते थे । उन्होंने श्रावक वर्ग में शांति और सद्भाव स्थापित न होने तक प्रवचन बन्द रखने की भी घोषणा कर दी । तदनन्तर | सामाजिक स्थिति पूर्ववत् बनी। संघ में पुनः शांति व सामंजस्य स्थापित हुआ।
३५, अहिंसापुरी, उदयपुर