Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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आचार्य भगवन्त के जीवन में सरलता, सहिष्णुता और सौहार्द के भाव थे। आचार्य भगवन्त का सं. २०१५ में दिल्ली में चातुर्मास था। उस समय श्रमण संघ के प्रथमपट्टधर आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज लुधियाना चातुर्मासार्थ विराज रहे थे। श्रमण संघ के प्रथम आचार्य श्री आत्माराज जी महाराज ने पत्र में आचार्य भगवन्त के लिए ‘पुरिसवरगंधहत्थीणं' विशेषण लगाया। जो विशेषण अरिहंतों के लिए लगाया जाता है, श्रमण संघ के प्रथम पट्टधर ने उसका प्रयोग आचार्य भगवन्त के लिये किया। आचार्य भगवन्त के प्रति उनका विशेष प्रेम था। इसलिए लुधियाना से संदेश आया कि आप दिल्ली तक पधार गये हैं, दिल्ली से लुधियाना ज्यादा दूर नहीं है, आप लुधियाना पधारें । पर आचार्य भगवन्त पूज्य अमरचन्द जी म.सा. की रुग्णता में सेवा को प्रमुखता देने के कारण नहीं पधार सके, यह अलग बात है।
जैन जगत् के ज्योतिर्धर आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज जेठाणा विराज रहे थे। उस समय आचार्य भगवन्त का भी जेठाणा पधारना हुआ। आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज को विहार करना था, आचार्य भगवन्त पहुंचाने के लिए नीचे उतरे । जवाहराचार्य कहने लगे - आप मुझे मांगलिक सुनाओ। जवाहराचार्य दीक्षा पर्याय और वय में बड़े थे, फिर भी मांगलिक श्रवण करना चाहते थे। आचार्य भगवन्त लघुता प्रकट करते रहे, किन्तु जवाहराचार्य ने कहा कि मैं दक्षिण में जा रहा हूँ, आपकी मांगलिक श्रवण करके जाऊँगा। आदर-समादर का वह कितना सुन्दर उदाहरण है।
आचार्य भगवन्त आत्म-साधक थे। जब तक जीये हर व्यक्ति के वे आस्था के केन्द्र रहे। अन्तिम समय आया तो समाधिमरण से वे चिर स्मरणीय बन गये। जिनाज्ञा के अनुसार उनका आचरण था। इसलिए बड़े बड़े आचार्य भगवन्त और सन्त भगवन्त उनका परामर्श प्राप्त करते। बड़े छोटों में जब कुछ विलक्षणता देखते हैं, तभी उनकी प्रशंसा होती है।
श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज का राजस्थान में पदार्पण हुआ। आचार्य सम्राट भोपालगढ़ पधारे, जहां आचार्य भगवन्त पहले से विराज रहे थे। दोनों में कैसा प्रेम था, वह आज भी हमें प्रेरणा देता है। आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषिजी को जोधपुर पधारना था। दोनों महापुरुषों ने आगे पीछे विहार किया। संयोग ऐसा हुआ कि आचार्य सम्राट के साथ वाले किसी संत को सर्प ने डस लिया। आचार्य सम्राट भक्तों से बोले - तुम आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज को सूचना करो। पूज्य गुरुदेव को सर्प डसने की सूचना मिली, वे तुरन्त विहार कर वहां पहुंचे। देखा तो गांव वाले सभी चिंतित और परेशान हैं, संत जिसे सांप काट खाया, वह बेहाल है। आचार्य भगवन्त ने अपनी साधना-आराधना से कुछ सुनाया और सांप का जहर उतर गया। यह चमत्कार नहीं साधक की साधना के बल का नमूना है।
पूज्य गुरुदेव ने संयम-साधना में आगमवाणी को सदा आगे रखकर उसका प्रचार-प्रसार किया। उस महापुरुष के समाधिमरण की बात आपने सुनी होगी। तप-साधना में उस युगमनीषी ने पूर्ण सजगता में संथारे के प्रत्याख्यान अंगीकार किये और संथारा स्वीकार करने के बाद उस महापुरुष ने शरीर तक से ममत्व हटा लिया। हाथ हो या पैर, वह जिस अवस्था में है उसे हिलाया तक नहीं। संतों ने जिस करवट सुला दिया, उन्होंने स्वयं करवट नहीं बदली। प्रतिलेखना के लिए जब भी आसन से उठाया जाता तो भगवन्त करुणा की दृष्टि से देख लेते । संत महर नजर रखने का निवेदन करते, पर वे आत्मरमण - आत्म चिन्तन में लीन रहते। उनकी अंगुलियों पर माला थी और था स्मरण । आगमों में पादपोपगमन संथारे का वर्णन आता है , आचार्य भगवन्त का समाधिमरण ठीक वैसा ही लगता था। ऐसे महापुरुष के लिए जितना कहा जाय कम है। उस दिव्य द्रष्टा ने मेरे जैसे अनपढ़ को पामर से पावन बना दिया। .)